सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
मायाशंकर ज्यों ही अपना कथन समाप्त कर के अपनी जगह बैठा कि हजारों आदमी चारों तरफ से आ-आ कर उसके इर्द-गिर्द जमा हो गये। कोई उसके पैरों पर गिरा पड़ता था, कोई रोता था, कोई दुआएँ देता था, कोई आनन्द से विह्वल हो करके उछल रहा था। आज उन्हें अमूल्य वस्तु मिल गयी थी जिसकी वह स्वप्न में भी कल्पना न कर सकते थे। दीन किसान को ज़मींदार बनने का हौसला कहाँ? सैकड़ों आदमी गवर्नर महोदय के पैरों पर गिर पड़े, कितने ही लोग बाबा ज्ञानशंकर के पैरों से लिपट गये। शामियाने में हलचल मच गयी। लोग आपसे में एक दूसरे से गले मिलते थे और अपने भाग्य को सराहते थे। प्रेमशंकर सिर झुकाये खड़े थे, मानो किसी विचार में डूबे हुए हों, लेकिन उनके अन्य मित्र खुशी के फूले न समाते थे। उनकी सगर्व आँखें कह रही थीं कि हमारी संगति और शिक्षा का फल है, हमको भी इसका कुछ श्रेय मिलना चाहिए, रईसों के प्राण संकट में पड़े हुए थे। आश्चर्य से एक दूसरे का मुँह ताकते थे, मानों अपने कानों और आँखों पर विश्वास न आता हो। कई विद्वान इस प्रश्न पर अपने विचार प्रकट करने के लिए आतुर हो रहे थे, पर यहाँ उसका अवसर न था।
गवर्नर महोदय बड़े असमंजस्य में पड़े हुए थे इस कथन का किन शब्दों में उत्तर दूँ? वह दिल में मायाशंकर के महान त्याग की प्रंशसा कर रहे थे, पर उसे प्रकट करते हुए उन्हें भय होता था कि अन्य ताल्लुकेदारों और रईसों को बुरा न लगे। इसके साथ ही चुप रहना मायाशंकर के इस महान् यज्ञ का अपमान करना था। उन्हें मायाशंकर में यह प्रेममय श्रद्धा हो गयी थी, जो पुनीत आत्माओं का भाग है। खड़े होकर मृदु स्वर में बोले–
मायाशंकर! यद्यपि हममें से अधिकांश सज्जन उन सिद्धान्तों के कायल न होंगे। जिससे प्रेरित होकर आपने यह अलौकिक संतोष व्रत धारण किया है, पर जो पुरुष सर्वथा हृदय-शून्य नहीं है वह अवश्य आपको देवतुल्य समझेगा। सम्भव है कि जीवन-पर्यन्त सुख भोगने के बाद किसी को वैराग्य हो जाये, किन्तु जिस युवक ने अभी प्रभुत्व और वैभव के मनोहर, सुखद उपवन में प्रवेश किया उसका यह त्याग आश्चर्यजनक है। पर यदि बाबू साहब को बुरा न लगे तो मैं कहूँगा कि समाज की कोई व्यवस्था केवल सिद्धान्तों के आधार पर निर्दोष नहीं हो सकती, चाहे वे सिद्धान्त कितने ही उच्च और पवित्र हों। उसकी उन्नति मानव चरित्र के अधीन है। एकधिपतियों में देवता हो गये हैं और प्रजावादियों में भयंकर राक्षस। आप जैसे उदार, विवेकशील, दयालु स्वामी की जात से प्रजा का कितना उपकार हो सकता था। आप उनके पथदर्शक बन सकते थे। अब वह प्रजा हितसाधनों से वंचित हो जायेगी, लेकिन मैं इन कुत्सित विचारों से आपको भ्रम में नहीं डालना चाहता। शुभ कार्य सदैव ईश्वर की ओर से होते हैं। यह भी ईश्वरीय इच्छा है और हमें आशा करनी चाहिए कि इसका फल अनुकूल होगा। मैं परमात्मा से प्रार्थना करता हूँ कि वह इन नये जमींदारों का कल्याण करे और आपकी कीर्ति अमर हो।
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