लोगों की राय

सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

370 पाठक हैं

‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


इधर तो मित्र-भवन की मंडली नाटक खेल रही थी, मस्ताने की तानें और प्रियनाथ की सरोद-ध्वनि रंग-भवन में गूँज रही थी, उधर बाबू ज्ञानशंकर नैराश्य के उन्मत्त आवेश में गंगातट की ओर लपके चले जाते थे जैसे कोई टूटी हुई नौका जल-तरंगों में बहती चली जाती हो। आज प्रारब्ध ने उन्हें परास्त कर दिया। अब तक उन्होंने सदैव प्रारब्ध पर विजय पाई थी। आज पाँसा पलट गया और ऐसा पलटा कि सँभलने की कोई आशा न थी, अभी एक क्षण पहले उनका भाग्य-भवन जगमगाते हुए दीपकों से प्रदीप्त हो रहा था, पर वायु के एक प्रचण्ड झोंके ने उन दीपकों को बुझा दिया। अब उनके चारों तरफ गहरा, घना भयावह अँधेरा था जहाँ कुछ न सूझता था।

वह सोचते चले जाते थे, क्या इसी उद्देश्य के लिए मैंने अपना जीवन समर्पण किया? क्या अपनी नाव इसीलिए बोझी थी कि वह जलमग्न हो जाय?

हा वैभव लालसा! तेरी बलिवेदी पर मैंने क्या नहीं चढ़ाया? अपना धर्म, अपनी आत्मा तक भेंट कर दी। हा! तेरे भाड़ में मैंने क्या नहीं झोंका? अपना मन, वचन, कर्म सब कुछ आहुति कर दी। क्या इसीलिए कि कालिमा के सिवा और कुछ हाथ न लगे।

मायाशंकर का कसूर नहीं, प्रेमशंकर को दोष नहीं, यह सब मेरे प्रारब्ध की कूटलीला है। मैं समझता था मैं स्वयं अपना विधाता हूँ। विद्वानों ने भी ऐसा कहा है; पर आज मालूम हुआ कि मैं इसके हाथों का खिलौना था। उसके इशारों पर नाचने वाली कठपुतली था। जैसे बिल्ली चूहे को खिलाती है, जैसे मछुआ मछली को खेलाता है उसी भाँति इसने मुझे अभी तक खेलाया। कभी पंजे से पकड़ लेता था, कभी छोड़ देता था।

जरा देर के लिए उसके पंजे से छूटकर मैं सोचता था, उस पर विजय पायी, पर आज खेल का अन्त हो गया, बिल्ली ने गर्दन दबा दी, मछुए ने बंसी खींच ली। मनुष्य कितना दीन, कितना परवश है? भावी कितनी प्रबल, कितनी कठोर!

जो तिमंजिला भवन मैंने एक युग में अविश्रान्त उद्योग से खड़ा किया, वह क्षणमात्र में इस भाँति भूमिस्थ हो गया, मानो उसका अस्तित्व न था, उसका चिन्ह तक नहीं दिखायी देता। क्या वह विशाल अट्टालिका भावी की केवल माया रचना थी?

हा! जीवन कितना निरर्थक सिद्ध हुआ। विषय-लिप्सा तूने मुझे कहीं का न रखा। मैं आँख तेज करके तेरे पीछे-पीछे चला और तूने मुझे इस घातक भँवर में डाल दिया।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book