सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
|
370 पाठक हैं |
‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
उपसंहार
दो साल हो गये हैं। सन्ध्या का समय है। बाबू मायाशंकर घोड़े पर सवार लखनपुर में दाखिल हुए। उन्हें वहाँ रौनक और सफाई दिखायी दी। प्रायः सभी द्वारों पर सायबान थे। उनमें बड़े-बड़े तख्ते बिछे हुए थे। अधिकांश घरों पर सुफेदी हो गयी थी। फूस के झोंपड़े गायब हो गये थे। अब सब घरों पर खपरैल थे। द्वारों पर बैलों के लिए पक्की चरनियाँ बनी हुई थीं और कई द्वारों पर घोड़े बँधे हुए नजर आते थे। पुराने चौपाल में पाठशाला थी और उसके सामने एक पक्का कुआँ और धर्मशाला थी। मायाशंकर को देखते ही लोग अपने-अपने काम छोड़कर दौड़े और एक क्षण में सैकड़ों आदमी जमा हो गये। मायाशंकर सुक्खू चौधरी के मन्दिर पर रुके। वहाँ इस वक्त बड़ी बहार थी। मन्दिर के सामने सहन में भाँति-भाँति के फूल खिले हुए थे। चबूतरे पर चौधरी बैठे हुए रामायण पढ़ रहे थे और कई स्त्रियाँ बैठी हुई सुन रही थीं। मायाशंकर घोड़े से उतर कर चबूतरे पर जा बैठे।
सुखदास हकबकाकर खड़े हो गये और पूछा– सब कुशल है न? क्या अभी चले आ रहे हैं?
माया– हाँ, मैंने कहा चलूं, तुम लोगों से भेंट-भाँट करता आऊँ।
सुख– बड़ी कृपा की। हमारे धन्य-भाग कि घर बैठे स्वामी के दर्शन होते हैं यह कहकर वह लपके हुए घर में गये, एक ऊनी कालीन लाकर बिछा दी, कल्से में पानी खींचा और शरबत घोलने लगे। मायाशंकर ने मुँह-हाथ धोया, शरबत पिया, घोड़े की लगाम उतार रहे थे कि कादिर खाँ ने आकर सलाम किया। माया ने कहा, कहिये खाँ साहब, मिजाज तो अच्छा है?
कादिर– सब अल्लाताला का फ़जल है। तुम्हारे जान-माल की खैर मनाया करते हैं। आज तो रहना होगा न?
माया– यही इरादा करके तो चला हूँ।
थोड़ी देर में वहाँ गाँव के सब छोटे-बड़े आ पहुँचे। इधर-उधर की बातें होने लगीं।
कादिर ने पूछा– बेटा आजकल कौंसिल में क्या हो रहा है? असामियों पर कुछ निगाह होने की आशा है या नहीं?
माया– हाँ, है! चचा साहब और उनके मित्र लोग बड़ा जोर लगा रहे हैं। आशा है कि जल्दी ही कुछ न कुछ नतीजा निकलेगा।
कादिर– अल्लाह उनकी मेहनत सुफल करे। और क्या दुआ दें? रोये-रोये से तो दुआ निकल रही है। काश्तकारों की दशा बहुत कुछ सुधरी है। बेटा, मुझी को देखो। पहले बीस बीघे का काश्तकार था, १०० रुपये लगान देना पड़ता था। दस-बीस रुपये साल नजराने में निकल जाते थे। अब जुमला २० रुपये लगान है और नजराना नहीं लगता। पहले अनाज खलिहान से घर तक न आता था। आपके चपरासी-कारिन्दे वहीं गला दबा कर तुलवा लेते थे। अब अनाज घर में भरते हैं और सुभीते से बेचते हैं। दो साल में कुछ नहीं तो तीन-चार सौ बचे होंगे। डेढ़ सौ की एक जोड़ी बैल लाये, घर की मरम्मत करायी, सायबान डाला हाँडियों की जगह ताँबे और पीतल के बर्तन लिये और सबसे बड़ी बात यह है कि अब किसी की धौंस नहीं। मालगुजारी दाखिल करके चुपके घर चले आते हैं। नहीं तो हरदम जान सूली पर चढ़ी रहती थी। अब अल्लाह की इबादत में भी जी लगता है, नहीं तो नमाज भी बोझ मालूम होती थी।
|