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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


माया– तुम्हारा क्या हाल है दुखरन भगत?

दुखरन– भैया, अब तुम्हारे अकबाल से सब कुशल है। अब जान पड़ता है कि हम भी आदमी हैं, नहीं तो पहले बैलों से भी गये-बीते थे। बैल तो हर से आता है, तो आराम से भोजन करके सो जाता है। यहाँ हर से आकर बैल की फिकिर करनी पड़ती थी। उससे छुट्टी मिले तो कारिन्दे साहब की खुशामद करने जाते। वहाँ से दस-ग्यारह बजे लौटते तो भोजन मिलता। १५ बीधे का काश्तकार था। १० बीघे मौरूसी थे। उसके ५० बीघे सिकमी डोतते थे। उनके ६०) देने पड़ते थे। अब १५ बीघे के कुल ३० रुपये देने पड़ते हैं। हरी-बेगारी, गजर-नियाज सबसे गला छूटा। दो साल में तीन-चार सौ हाथ में हो गये। १०० रुपये की एक पछाहीं भैंस लाया हूँ। कुछ करजा था, चुका दिया।

सुखदास– और तबला-हरमोनियम लिया है, वह क्यों नहीं कहते? एक पक्का कुआँ बनवाया है उसे क्यों छिपाते हो? भैया यह पहले ठाकुर जी के बड़े भगत थे। एक बार बेगार में पकड़े गये तो आकर ठाकुर जी पर क्रोध उतारा। उनकी प्रतिमा को तोड़-ताड़ कर फेंक दिया। अब फिर ठाकुर जी के चरणों में इनकी श्रद्धा हुई है! भजन-कीर्तन का सब सामान इन्होंने मँगवाया है!

दुखरन– छिपाऊँ क्यों? मालिक से कौन परदा? यह सब उन्हीं का अकबाल तो है।

माया– यह बातें चचा जी सुनते, तो फूले न समाते।

कल्लू– भैया, जो सच पूछों तो चाँदी मेरी है। रंक से राजा हो गया। पहले ६ बीघे का असामी था, सब सिकमी, ७२ रुपये लगान के देने पड़ते थे, उस पर हरदम गौस मियाँ कि चिरौरी किया करता था कि कहीं खेत न छीन लें। ५० रुपए खाली नजराना लगता था। पियादों की पूजा अलग करनी पड़ती थी। अब कुल ९ रुपये लगान देता हूँ। दो साल में आदमी बन गया। फूस के झोंपड़े में रहता था, अबकी मकान बनवा लिया है। पहले हरदम धड़का लगा रहता था कि कोई कारिन्दे से मेरी चुगली न कर आया हो। अब आनन्द से मीठी नींद सोता हूँ और तुम्हारा जस गाता हूँ।

माया– (सुक्खू चौधरी से) तुम्हारी खेती तो सब मजदूरों से ही होती होगी? तुम्हें भजन-भाव से कहाँ छुट्टी?

सुक्खू– (हंसकर) भैया, मुझे अब खेती-बारी करके क्या करना है। अब तो यही अभिलाषा है कि भगवन-भजन करते-करते यहाँ से सिधार जाऊँ। मैंने अपने चालीसों बीघे उन बेचारों को दे दिये हैं जिनके हिस्से में कुछ न पड़ा था। इस तरह सात-आठ घर जो पहले मजूरी करते थे और बेगार के मारे मजूरी भी न करने पाते थे, अब भले आदमी हो गये। मेरा अपना निर्वाह भिक्षा से हो जाता है। हाँ, इच्छापूर्ण भिक्षा यहीं मिल जाती है, किसी दूसरे गाँव में पेट के लिए नहीं जाना पड़ता है। दो-चार साधु-संत नित्य ही आते रहते हैं। उसी भिक्षा में उनका सत्कार भी हो जाता है।

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