सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
माया– आज बिसेसर साह नहीं दिखायी देते।
सुक्खू– किसी काम से गये होंगे वह भी अब पहले से मजे में हैं। दूकान बहुत बढ़ा दी है, लेन-देन कम करते हैं। पहले रुपये में आने से कम ब्याज न लेते थे और करते क्या? कितने ही असामियों से कौड़ी वसूल न होती थी। रुपये मारे पड़ते थे। उसकी कसर ब्याज से निकालते थे। अब रुपये सैकड़ों ब्याज देते हैं। किसी के यहाँ रुपये डूबने का डर नहीं है। दुकान भी अच्छी चलती है। लस्करों में पहले दिवाला निकल जाता था। अब एक तो गाँव का बल है, कोई रोब नहीं जमा सकता और जो कुछ थोड़ा बहुत घाटा हुआ भी तो गाँववाले पूरा कर देते हैं।
इतने में बलराज रेशमी साफा बाँधे, मिर्जई, पहने, घोड़े पर सवार आता दिखायी दिया। मायाशंकर को देखते ही बेधड़क घोड़े पर से कूद पड़ा और उनके चरण स्पर्श किये। वह अब जिला-सभा का सदस्य था। उसी के जल्से से लौटा आ रहा था।
माया ने मुस्करा कर पूछा– कहिये मेम्बर साहब क्या खबर है?
बलराज– हुजूर की दुआ से अच्छी तरह हूँ। आप तो मजे में है? बोर्ड के जल्से में गया था। बहस छिड़ गयी, वहीं चिराग जल गया।
माया– आज बोर्ड में क्या था।
बलराज– यही बेगार का प्रश्न छिड़ा हुआ था। खूब गर्मागर्म बहस हुई गयी। मेरा प्रस्ताव था कि जिले का कोई हाकिम देहात में जाकर गाँववालों से किसी तरह की खिदमत का काम न ले– पानी भरना, घास छीलना, झाड़ू लगाना। जो रसद दरकार हो वह गाँव के मुखिया से कह दी जाय और बाजार भाव से उसी दम दाम चुका दिया जाय। इस पर दोनों तहसीलदार और कई हुक्काम बहुत भन्नाये। कहने लगे, इससे सरकारी काम में बड़ा हर्ज होगा। मैंने भी जी खोलकर जो कुछ कहते बना, कहा। सरकारी काम प्रजा को कष्ट देकर और उनका अपमान करके नहीं होना चाहिए। हर्ज होता है तो हो। दिल्लगी यह है कि कई ज़मींदार भी हुक्काम के पक्ष में थे। मैंने उन लोगों की खूब खबर ली। अन्त में मेरा प्रस्ताव स्वीकृत हुआ। देखें जिलाधीश क्या फैसला करते हैं। मेरा एक प्रस्ताव यह भी था कि निर्खनामा लिखने के लिए एक सब-कमेटी बनायी जाय जिसमें अधिकांश व्यापारी लोग हों। यह नहीं कि तहसीलदार ने कलम उठाया और मनमाना निर्ख लिख कर चलता किया। वह प्रस्ताव भी मंजूर हुआ।
माया– मैं इन सफलताओं पर तुम्हें बधाई देता हूँ।
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