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संग्राम (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8620

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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट


(तीसरा चित्र– थानेदार साहब गाँव में एक खाट पर बैठे हैं। चोरी के माल की तफ़तीश कर रहे हैं। कई कान्स्टेबल वर्दी पहने हुए खड़े हैं। घरों में खाना तलाशी हो रही हैं। घर की सब चीजें देखी जा रही है। जो चीज जिसको पसन्द आती है उठा लेता है। औरतों के बदन पर के गहने उतरवा लिये जाते हैं।)

फत्तू– इन जालिमों से खुदा बचाये।

एक किसान– आये है अपने पेट भरने। बहाना कर दिया कि चोरी के माल का पता लगाने आये हैं।)

फत्तू– अल्लाह मियां का कहर भी इन पर नहीं गिरता। देखो बेचारों की खानातलाशी हो रही है।

हलधर– खानातलाशी काहे की है लूट है। उस पर लोग कहते हैं कि पुलिस तुम्हारे जान-माल की रक्षा करती है।

फत्तू– इसके घर में कुछ नहीं निकला।

हलधर– यह दूसरा घर किसी मालदार किसान का है। देखो हाड़ी में सोने का कंठा रखा हुआ है। गोप भी है। महतो इसे पहनकर नेवता खाने जाते होंगे। चौकीदार ने उड़ा लिया, देखो, औरतें आंगन में खड़ी की गयी हैं। उनके गहने उतारने को कह रहा है।

फत्तू– बेचारा महतो थानेदार के पैरों पर गिर रहा है। और अंजुली भर रुपये लिए खड़ा है।

राजेश्वरी– (सलोनी से) पुलिसवाले जिसकी इज्जत चाहें ले ले।

सलोनी– हां, देखते तो आठ बरस हो गये। इनके ऊपर तो जैसे कोई है ही नहीं।

राजेश्वर– रुपये ले लिये, बेचारियों की जान बची। मैं तो इन सभी के सामने कभी न खड़ी हो सकूँ चाहे कोई मार ही डालें।

सलोनी– तस्वीरें न जाने कैसे चलती हैं।

राजेश्वरी– अब तमाशा बन्द हो रहा है।

एक किसान– आधी रात भी हो गयी। सवेरे ऊख काटनी है।

सबल– आज तमाशा बंद होता है। कल तुम लोगों को और भी अच्छे-अच्छे चित्र दिखाये जायेंगे, जिससे तुम्हें मालूम होगा कि बीमारी से अपनी रक्षा कैसे की जा सकती है। घरों की और गांव की सफाई कैसे होनी चाहिए, कोई बीमारी पड़ जाये तो उनकी देख-रेख कैसे करनी चाहिए। किसी के घर में आग लग जाये तो उसे कैसे बुझाना चाहिए। मुझे आशा है कि आज की तरह तुम लोग कल भी आओगे।

(सब लोग जाते हैं।)

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