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संग्राम (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8620

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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट


सबल– भाग्य तो अपने हाथ का खेल है। जैसे चाहो वैसा बन सकता है। जब मैं तुम्हारा भक्त हूँ तो तुम्हें किसी बात की चिन्ता न करनी चाहिए। तुम चाहो तो कोई नौकर रख लो। उसकी तलब मैं दे दूंगा, गाँव में रहने की इच्छा न हो तो शहर चलो, हलधर को अपने यहाँ रख लूँगा, तुम आराम से रहना। तुम्हारे लिए मैं सब कुछ करने को तैयार हूं, केवल तुम्हारी दया-दृष्टि चाहता हूं। राजेश्वरी, मेरी इतनी उम्र गुजर गयी लेकिन परमात्मा जानते हैं कि आज तक मुझे न मालूम हुआ कि प्रेम क्या वस्तु है। मैं इस रस के स्वाद को जानता ही न था, लेकिन जिस दिन से तुमको देखा है प्रेमानन्द का अनुपम सुख भोग रहा हूं। तुम्हारी सूरत एक क्षण के लिए भी आँखों से नहीं उतरती। किसी काम में जी नहीं लगता तुम्हीं चित्त में बसी रहती हो। बगीचे में जाता हूँ तो मालूम होता है कि फूलों में तुम्हारी ही सुगन्धि है, श्यामा की चहक सुनता हूँ तो मालूम होता है कि तुम्हारी ही मधुर ध्वनि है। चन्द्रमा को देखता हूँ तो जान पड़ता है कि वह तुम्हारी ही मूर्ति है। प्रबल उत्कंठा होती है कि चलकर तुम्हारे चरणों पर सिर झुका दूँ। ईश्वर के लिए यह मत समझो कि मैं तुम्हें कलंकित करना चाहता हूँ। कदापि नहीं जिस दिन यह कुभाव यह कुचेष्ठा, मन में उत्पन्न होगी उस दिन हृदय को चीरकर बाहर फेंक दूँगा। मैं केवल तुम्हारे दर्शन से अपनी आंखों को तृप्त करना, तुम्हारा सुललित वाणी से अपने श्रवण को मुग्ध करना चाहता हूं। मेरी यही परमकांक्षा है कि तुम्हारे निकट रहूं, तुम मुझे अपना प्रेमी भक्त समझो और मुझसे किस प्रकार का परदा या संकोच न करो। जैसे किसी सागर के निकट के वृक्ष उससे रस खींच कर हरे-भरे रहते हैं उसी प्रकार तुम्हारे समीप रहने से मेरा जीवन आनन्दमय हो जायेगा।

(चेतनदास भजन गाते हुए दोनों प्राणियों को देखते चले जाते हैं।

राजेश्वरी– (मन में) मैं इनसे कौशल करना चाहती थी पर न जाने इनकी बातें सुनकर क्यों हृदय पुलकित हो रहा है। एक-एक शब्द मेरे हृदय में चुभ जाता है। (प्रकट) ठाकुर साहब, एक दीन मजूरी करने वाली स्त्री से ऐसी बातें करके उसका सिर आसमान पर न चढ़ाइए। मेरा जीवन नष्ट हो जाएगा! आप धर्मात्मा हैं, जसी हैं, दयावान हैं। आज घर-घर आपके जस का बखान हो रहा है, आपने अपनी प्रजा पर जो दया की है उसकी महिमा मैं नहीं गा सकती लेकिन ये बातें अगर किसी के कान पड़ गयी तो यह परजा, जो आपके पैरों की धूल माथे पर चढ़ाने को तरसती है, आपकी बैरी हो जायेगी, आपके पीछे पड़ जायेगी। अभी कुछ नहीं बिगड़ा है मुझे भूल जाइए। संसार में एक-से-एक सुन्दर औरतें हैं। मैं गंवारिन हूं। मजूरी करना मेरा काम है। इन प्रेम की बातों को सुनकर मेरा चित्त ठिकाने न रहेगा। मैं उसे अपने बस में न रख सकूँगी। वह चंचल हो जाएगा और न जाने उस अचेत दशा में क्या कर बैठे। उसे फिर नाम की, कुल की, निंदा की लाज न रहेगी। प्रेम बढ़ती हुई नदी है। उसे आप यह नहीं कह सकते कि यहाँ तक चढ़ना, इसके आगे नहीं। चढावा होगा तो वह किसी के रोके न रूकेगी। इसलिए मैं आपसे बिनती करती हूं कि यहीं तक रहने दीजिए मैं अभी तक अपनी दशा में संतुष्ट हूं। मुझे इसी दशा में रहने दीजिए। अब मुझे देर हो रही है, जाने दीजिए।

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