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संग्राम (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8620

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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट


फत्तू– उस जन्म के कोई महात्मा हैं, नहीं तो देखता हूँ जिसके पास चार पैसे हो गये वह यही सोचने लगता है कि किसे पीस के पी जाऊं। एक बेगार भी नहीं लगती, नहीं तो पहले बेगार देते-देते धुर्रे उड़ जाते थे। इसी गरीबपरवरी की बरकत है कि गांवों में न कोई कारिंदा है, न चपरासी, पर लगान नहीं रूकता। लोग मियाद के पहले ही दे आते हैं। बहुत गांव देखे पर ऐसा ठाकुर नहीं देखा।

[सबलसिंह घोड़े पर आकर खड़ा हो जाता है। दोनों आदमी झुक-झुककर सलाम करते हैं। राजेश्वरी घूंघट निकाल लेती है।]

सबल– कहो बड़े मियां, गांव में सब खैरियत है न?

फत्तू– हजूर के अकबाल से खैरियत है।

सबल– फिर वही बात। मेरे अकबाल को क्यों सराहते हो। यह क्यों नहीं कहते कि ईश्वर की दया से या अल्लाह के फज़्ल से खैरियत है। अबकी खेती तो अच्छी दिखाई देती है?

फत्तू– हां सरकार, अभी तक खुदा का फज़्ल है।

सबल– बस इसी तरह बातें किया करो। किसी आदमी की खुशामत मत करो, चाहे वह जिले का हाकिम ही क्यों न हो। हां, अभी किसी अफ़सर का दौरा तो नहीं हुआ?

फत्तू– नहीं सरकार, अभी तक तो कोई नहीं आया।

सबल– और न शायद कोई आयेगा। लेकिन कोई आ भी जाये तो याद रखना, गांव में किसी तरह की बेगार न मिले। साफ कह देना, बिना जमींदार के हुक्म के हम लोग कुछ नहीं दे सकते। मुझसे जब कोई पूछेगा तो देख लूंगा। (मुस्कराकर) हलधर! नया गौना लाये हो। हमारे घर बैना नहीं भेजा?

हलधर– हुजूर, मैं किस लायक हूँ।

सबल— यह तो तुम तब कहते जब मैं तुमसे मोतीचूर के लड्डू या घी के खाजे मांगता। प्रेम से शीरे और सत्तू के लड्डू भेज देते तो मैं उसी को धन्य भाग कहता। यह न समझो कि हम लोग सदा घी और मैदे खाया करते हैं। मुझे बाजरे की रोटियां और तिल के लड्डू और मटर का चबेना कभी-कभी हलवे और मुरब्बे से भी अच्छे लगते हैं। एक दिन मेरी दावत करो, मैं तुम्हारी नयी दुलहिन के हाथ का बनाया हुआ भोजन करना चाहता हूं। देखें यह मैंके से क्या गुन सीख कर आयी है। मगर खाना बिल्कुल किसानों का-सा हो। अमीरों का खाना बनवाने की फ़िक्र मत करना।

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