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संग्राम (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8620

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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट


हलधर– हम लोगों के लिट्ट सरकार को पसंद आयेंगे?

सबल– हां, बहुत पसंद आयेंगे।

हलधर– जब हुकूम हो।

सबल– मेहमान के हुकुम से दावत नहीं होती। खिलाने वाला अपनी मरजी से तारीख और वक्त ठीक करता है। जिस दिन कहो आऊं। फत्तू, तुम बतलाओ, इसकी बहू काम-काज में चतुर है न? जबान की तेज तो नहीं है?

फत्तू– हुजूर मुंह पर क्या बयान करूं, ऐसी मेहनतिन औरत गांव में और नहीं है। खेती का तार-तौर जितना यह समझती है उतना हलधर भी नहीं समझता। सुशील ऐसी है कि यहां आये आठवां महीना होता है किसी पड़ोसी ने आवाज नहीं सुनी।

सबल– अच्छा तो अब मैं चलूंगा, जरा मुझे सीधे रास्ते पर लगा दो, नहीं तो यह जानवर खेतों को रौंद डालेगा। तुम्हारे गांव से मुझे साल में १५०० रु. मिलते हैं। इसने एक महीने में ५००० रु. की बाजी मारी। हलधर, दावत की बात भूल न जाना।

[फत्तू और सबलसिंह जाते हैं।]

राजेश्वरी– आदमी काहे को है, देवता हैं। मेरा तो जी चाहता था उनकी बातें सुना करूं। जी ही नहीं भरता था। एक हमारे गांव का जमींदार है कि प्रजा को चैन नहीं लेने देता। नित्य एक-न-एक बेगार, कभी बेदखली, कभी जाफा, कभी कुड़की उसके सिपाहियों के मारे छप्पर पर कुम्हड़े-कद्दू तक नहीं बचने पाते। औरतों को राह चलते छेड़ते हैं। लोग रात-दिन मनाया करते हैं कि इसकी मिट्टी उठे। अपनी सवारी गांव वालों से लेता है।

हलधर– दावत सचमुच करूं कि दिल्लगी करते थे?

राजेश्वरी– दिल्लगी नहीं करते थे, दावत करनी होगी। देखा नही, चलते-चलते कह गये। खायेंगे तो क्या, बड़े आदमी छीटों का मान रखने के लिए ऐसी बातें किया करते हैं, पर आयेंगे जरूर।

हलधर– उनके खाने लायक भला हमारे यहां क्या बनेगा?

राजेश्वरी– तुम्हारें घर पर अमीरी खाना खाने थोड़े ही आयेंगे। पूरी-मिठाई तो नित्य ही खाते हैं। मैं तो कुटे हुए जौ की रोटी, सावां का महेर, बथुवे का साग, मटर की मसालेदार दाल और और दो-तीन तरह की तरकारी बनाऊंगी। लेकिन मेरा बनाया खायेंगे? ठाकुर है न?

हलधर– खाने-पाने का इनको कोई विचार नहीं है। जो चाहे बना दे। यही बात इनमें बुरी है। सुना है अंग्रेजो के साथ कलपघर में बैठकर खाते हैं।

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