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नाटक-एकाँकी >> संग्राम (नाटक)

संग्राम (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8620

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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट


फत्तू– काकी, तेरे पास कुछ रुपये ऊपर हों तो मुझे उधार दे दे।

सलोनी– चल बातें बनाता है। मेरे पास रुपये कहां से आयेंगे? कौन घर के आदमी कमाई कर रहे हैं। चालीस साल बीत गये बाहर से एक पैसा भी घर में नहीं आया।

फत्तू– अच्छा नहीं देती है मत दे। अपने तीनों सीसम के पेड़ बेच दूंगा।

चेतन– अच्छा तो मैं जाता हूं विश्राम करने। कल दिन-भर में तुम लोग प्रबन्ध करके जो कुछ हो सके इस कार्य के निमित्त दे देना। कल संध्या को अपने आश्रम पर चला जाऊंगा।

[प्रस्थान]

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