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संग्राम (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8620

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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट

छठा दृश्य

[स्थान– शहरवाला किराये का मकान। समय आधी रात, कंचनसिंह और राजेश्वरी बातें कर रहे हैं।]

राजेश्वरी– देवर जी, मैंने प्रेम के लिए अपना सर्वस्व लगा दिया। पर जिस प्रेम की आशा की थी वह नहीं मयस्सर हुआ। मैंने अपना सर्वस्व दिया है तो उसके लिए सर्वस्व चाहती भी हूं। मैंने समझा था, एक के बदले आधी पर संतोष कर लूंगी। पर अब देखती हूं तो जान पड़ता है कि मुझसे भूल हो गयी। दूसरी बड़ी भूल यह हुई है कि मैंने ज्ञानी देवी की ओर ध्यान नहीं दिया था। उन्हें कितना दुख, कितना शोक, कितनी जलन होगी इसका मैंने जरा भी विचार नहीं किया था। आपसे एक बात पूछूं, नाराज तो न होंगे?

कंचन– तुम्हारी बात से मैं नाराज हूंगा!

राजेश्वरी– आपने अब तक विवाह क्यों नहीं किया?

कंचन– इसके कई कारण है। मैंने धर्मग्रंथों में पढ़ा था कि गृहस्थ जीवन की मोक्ष-प्राप्ति में बाधक होता है। मैंने अपना तन, मन,धन सब धर्म पर अर्पण कर दिया था। दान और व्रत को ही मैंने जीवन का एक उद्देश्य समझ लिया था। उसका मुख्य कारण यह था कि मुझे प्रेम का कुछ अनुभव न था। मैंने उसका सरस स्वाद न पाया था। उसे केवल माया की एक कूटलीला समझा करता था, पर अब ज्ञात हो रहा है कि प्रेम में कितना पवित्र आनन्द और कितना स्वर्गीय सुख भरा हुआ है। इस सुख के सामने अब मुझे धर्म, मोक्ष और व्रत कुछ भी नहीं जंचते। उसका सुख भी चितामय है, इसका दु:ख भी रसमय।

राजेश्वरी– (वक्र नेत्रों से ताक कर) यह सुख कहां प्राप्त हुआ?

कंचन– यह न बताऊंगा।

राजेश्वरी– (मुस्कुरा कर) बताइए चाहे न बताइए, मैं समझ गयी। जिस वस्तु को पाकर आप इतने मुग्ध हो गये हैं वह असल में प्रेम नहीं है। प्रेम की केवल झलक है। जिस दिन आपको प्रेम-रत्न मिलेगा उस दिन आपको इस आनन्द का सच्चा अनुभव होगा।

कंचन– मैं यह रत्न पाने योग्य नहीं हूं। वह आनंद मेरे भाग्य में ही नहीं है।

राजेश्वरी– है और मिलेगा। भाग्य से इतने निराश न होइये। आप जिस दिन, जिस घड़ी, जिस पले इच्छा करेंगे वह रत्न आपको मिल जायेगा। वह आपकी इच्छा की बाट जोह रहा है।

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