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सेवासदन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :535
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8632

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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है


गजाधर ने सुमन को घर की स्वामिनी बना तो दिया था, पर वह स्वभाव से कृपण था। जलपान की जलेबियां उसे विष के सामान लगती थीं। दाल में घी देखकर उसके हृदय में शूल होने लगता। वह भोजन करता तो बटुली की ओर देखता कि कहीं अधिक तो नहीं बना है। दरवाजे पर दाल-चावल फेंका देखकर शरीर में ज्वाला-सी लग जाती थी, पर सुमन की मोहिनी सूरत ने उसे वशीभूत कर लिया था। मुंह से कुछ न कह सकता।

पर आज जब कई आदमियों से उधार मांगने पर रुपए न मिले, तो वह अधीर हो गया। घर में आकर बोला– रुपए तो तुमने खर्च कर दिए, अब बताओ, कहां से आएं?

सुमन– मैंने कुछ उड़ा तो नहीं दिए।

गजाधर– उड़ाए नहीं, पर यह तो मालूम था कि इसी में महीने भर चलाना है। उसी हिसाब से खर्च करना था।

सुमन– उतने रुपयों में बरकत थोड़े ही हो जाएगी।

गजाधर– तो मैं डाका तो नहीं मार सकता।

बातों-बातों में झगड़ा हो गया। गजाधर ने कुछ कठोर बातें कहीं। अंत में सुमन ने अपनी हंसुली गिरवी रखने को दी और गजाधर भुनभुनाता हुआ लेकर चला गया।

लेकिन सुमन का जीवन सुख में कटा था। उसे अच्छा खाने, अच्छा पहनने की आदत थी। अपने द्वार पर खोमचेवालों की आवाज सुनकर उससे रहा न जाता। अब तक वह गजाधर को भी खिलाती थी। अब से अकेली ही खा जाती। जिह्वा-रस भोगने के लिए पति से कपट करने लगी।

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