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सेवासदन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :535
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8632

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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है


सुभद्रा ने गाड़ी रुकवा दी। सुमन ने एक बार भोलीबाई के मकान की ओर ताका। वह अपने छज्जे पर टहल रही थी। दोनों की आंखें मिलीं, भोली ने मानो कहा, अच्छे ये ठाट हैं! सुमन ने जैसे उत्तर दिया, अच्छी तरह देख लो, यह कौन लोग हैं। तुम मर भी जाओ, तो इस देवी के साथ बैठना नसीब न हो।

सुमन उठ खड़ी हुई और सुभद्रा की ओर सजल नेत्रों से देखती हुई बोली– इतना प्रेम लगाकर बिसार मत देना। मेरा मन लगा रहेगा।

सुभद्रा ने कहा– नहीं बहन, अभी तो तुमसे कुछ बातें भी न करने पाई। मैं तुम्हें कल बुलाऊंगी।

सुमन उतर पड़ी। गाड़ी चली गई। सुमन अपने घर में गई, तो उसे मालूम हुआ, मानो कोई आनंदमय स्वप्न देखकर जागी है।

गजाधर ने पूछा– यह गाड़ी किसकी थी?

सुमन– यहीं के कोई वकील हैं। बेनीबाग में उनकी स्त्री से भेंट हो गई। जिद करके गाड़ी पर बिठा लिया। मानती ही न थीं।

गजाधर– तो क्या तुम वकील के साथ बैठी थी?

सुमन– कैसी बातें करते हो? वह बेचारे तो कोचवान के साथ बैठे थे।

गजाधर– तभी इतनी देर हुई।

सुमन– दोनों सज्जनता के अवतार हैं।

गजाधर– अच्छा, चल के चूल्हा जलाओं, बहुत बखान हो चुका।

सुमन– तुम वकील साहब को जानते तो होगे?

गजाधर– इस मुहल्ले में तो यही एक पद्मसिंह वकील हैं? वही रहे होंगे?

सुमन– गोरे-गोरे लंबे आदमी हैं। ऐनक लगाते हैं।

गजाधर– हां, हां, वही हैं। यह क्या पूरब की ओर रहते हैं।

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