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सेवासदन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :535
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8632

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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है


गांव से दो मील पर पीपल का एक वृक्ष था। यह जनश्रुति थी कि वहां भूतों का अड्डा है। सबके-सब उसी वृक्ष पर रहते हैं। एक कमलीवाला भूत उनका सरदार है। वह मुसाफिरों के सामने काली कमली ओढ़े, खड़ाऊं पहने आता है और हाथ फैलाकर कुछ मांगता है। मुसाफिर ज्यों ही देने के लिए हाथ बढ़ाता है, वह अदृश्य हो जाता है। मालूम नहीं, इस क्रीड़ा से उसका क्या प्रयोजन था; रात को कोई मनुष्य उस रास्ते से अकेले न आता, और जो कोई साहस करके चला जाता, वह कोई-न-कोई अलौकिक बात अवश्य देखता। कोई कहता, गाना हो रहा था। कोई कहता, पंचायत बैठी हुई थी। सदन को अब यही एक शंका और थी। उसका हियाब बर्फ के समान पिघलता जाता था, जब एक फर्लांग शेष रह गया, तो उसके पग न उठे। जमीन पर बैठ गया सोचने लगा कि क्या करूं। चारों ओर देखा, कहीं कोई मनुष्य न दिखाई दिया। यदि कोई पशु ही नजर आता, तो उसे धैर्य हो जाता।

आध घंटे तक वह किसी आने-जाने वाले की राह देखता रहा, पर देहात का रास्ता रात को नहीं चलता। उसने सोचा, कब तक बैठा रहूंगा? एक बजे रेल आती है, देर हो जाएगी, तो सारा खेल बिगड़ जाएगा। अतएव वह हृदय में बल का संचार करके उठा और रामायण की चौपाइयां उच्च स्वर में गाता हुआ चला। भूत-प्रेत के विचार को किसी बहाने से दूर रखना चाहता था। किंतु ऐसे अवसरों पर गर्मी की मक्खियों की भांति विचार टालने से नहीं टालता। हटा दो, फिर आ पहुंचे। निदान वह सघन वृक्ष सामने दिखाई देने लगा। सदन ने उसकी ओर ध्यान से देखा। रात अधिक जा चुकी थी, तारों का प्रकाश भूमि पर पड़ रहा था। सदन को वहां कोई वस्तु न दिखाई दी, उसने और भी ऊंचे स्वर में गाना शुरू किया। इस समय एक-एक रोम सजग हो रहा था। कभी इधर ताकता, कभी उधर। नाना प्रकार के जीव दिखाई देते, किंतु ध्यान से देखते ही लुप्त हो जाते। अकस्मात् उसे मालूम हुआ कि दाहिनी ओर कोई बंदर बैठा हुआ है। कलेजा सन्न हो गया। किंतु क्षण-मात्र में बंदर मिट्टी का ढेर बन गया।

जिस समय सदन वृक्ष के नीचे पहुंचा, उसका गला थरथराने लगा, मुंह से आवाज न निकली। अब विचार को बहलाने की आवश्यकता भी न थी, मन और बुद्धि की सभी शक्तियों का संचय परमावश्यक था। अकस्मात् उसे कोई वस्तु दौड़ती नजर आई। यह उछल पड़ा, ध्यान से देखा तो कुत्ता था। किंतु वह सुन चुका था कि भूत कभी-कभी कुत्तों के रूप में भी आ जाया करते हैं। शंका और भी प्रचंड हुई, सावधान होकर खड़ा हो गया, जैसे कोई वीर पुरुष शत्रु के वार की प्रतीक्षा करता है। कुत्ता सिर झुकाए चुपचाप कतराकर निकल गया। सदन ने जोर से डांटा, धत्। कुत्ता दुम दबाकर भागा। सदन कई पग उसके पीछे दौड़े। भय की चरम सीमा ही साहस है। सदन को विश्वास हो गया, कुत्ता ही था; भूत होता तो अवश्य कोई-न-कोई लीला करता। भय कम हुआ, किंतु यह वहां से भागा नहीं। वह अपने भीरु हृदय को लज्जित करने के लिए कई मिनट तक पीपल के नीचे खड़ा रहा। इतना ही नहीं, उसने पीपल की परिक्रमा की और उसे दोनों हाथों से बलपूर्वक हिलाने की चेष्टा की। यह विचित्र साहस था। ऊपर, पत्थर, नीचे पानी। एक जरा-सी आवाज, एक जरा-सी पत्ती की खड़कन उसके जीवन का निपटारा कर सकती थी। इस परीक्षा से निकलकर सदन अभिमान से सिर उठाए आगे बढ़ा।

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