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सेवासदन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :535
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8632

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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है


तार देकर फिर सदन से गाँव-घर की बातें करने लगे, कोई कुर्मी, कहार, लोहार, चमार ऐसा न बचा, जिसके संबंध में शर्माजी ने कुछ न कुछ पूछा न हो। ग्रामीण जीवन में एक प्रकार की ममता होती है, जो नागरिक जीवन में नहीं पाई जाती। एक प्रकार का स्नेह-बंधन होता है।, जो सब प्राणियों को, चाहे छोटे हों या बड़े, बांधे रहता है।

संध्या हो गई। शर्माजी सदन के साथ सैर को निकले। किंतु बेनीबाग या क्वींस पार्क की ओर न जाकर वह दुर्गाकुंड और कान्हजी की धर्मशाला की ओर गए। उनका चित्त चिंताग्रस्त हो रहा था, आंखें इधर-उधर सुमन को खोजती-फिरती थीं। मन में निश्चय कर लिया था। कि अबकी वह मिल जाए, तो कदापि न जाने दूं, चाहे कितनी ही बदनामी हो। यही न होगा कि उसका पति मुझ पर दावा करेगा। सुमन की इच्छा होगी, चली जाएगी। चलूं गजाधर के पास, संभव है, वह घर आ गई हो। यह विचार आते ही वह घर लौटे। कई मुवक्किल उनकी बाट जोह रहे थे। उनके कागज-पत्र देखे, किंतु मन दूसरी ओर था। ज्यों ही इनसे छुट्टी हुई, वह गजाधर के घर चले, किंतु इधर-उधर ताकते जाते थे कि कहीं कोई देख न रहा हो, कोई साथ न आता हो। इस ढंग से जाते हैं मानो कोई प्रयोजन नहीं है। गजाधर के द्वार पर पहुंचे। वह अभी दुकान से लौटा था। आज उसे दोपहर ही को खबर मिली थी कि शर्माजी ने सुमन को घर से निकाल दिया। तिस पर भी उसको यह संदेह हो रहा था कि कहीं इस बहाने उसे छिपा न दिया हो। लेकिन इस समय शर्माजी को अपने द्वार पर देखकर वह उनका सत्कार करने के लिए विवश हो गया। खाट पर से उठकर उन्हें नमस्ते किया। शर्माजी रुक गए और निश्चेष्ट भाव से बोले– क्यों पंडितजी, महाराजिन घर आ गईं न?

गजाधर का संदेह कुछ हटा, बोला– जी नहीं, जब से आपके घर से गईं, तब से उसका कुछ पता नहीं।

शर्माजी– आपने कुछ इधर-उधर पूछताछ नहीं की? आखिर यह बात क्या हुई। जो आप उनसे इतने नाराज हो गए?

गजाधर– महाशय, मेरे निकालने का तो एक बहाना था, असल में वह निकलना चाहती ही थी। पास-पड़ोस की दुष्टाओं ने उसे बिगाड़ दिया था। इधर महीनों से वह अनमनी-सी रहती थी। होली के दिन एक बजे रात को घर आई, संदेह हुआ। मैंने डांट-डपट की। घर से निकल खड़ी हुई।

शर्माजी– लेकिन आप उसे घर लाना चाहते, तो मेरे यहां से ला सकते थे। इसके बदले आपने मुझको बदनाम करना शुरू किया। तो भाई, अपनी इज्जत तो सभी को प्यारी होती है। इस मुआमले में मेरा इतना ही अपराध है कि वह होली वाले जलसे में मेरे यहां रही। यदि मुझे मालूम होता कि जलसे का यह परिणाम होगा, तो या तो जलसा ही न करता या उसे अपने घर आने न देता। इतने ही अपराध के लिए आपने सारे शहर में मेरा नाम बेच डाला।

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