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उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास)

सेवासदन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :535
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8632

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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है


कृष्णचन्द्र ने फिर चारों तरफ चौकन्नी आंखों से देखकर कहा– मैं एक कौड़ी भी कम न करूंगा।

मुख्तार– अच्छा, मेरा हक तो दीजिएगा न?

कृष्णचन्द्र– अपना हक महन्तजी से लेना।

मुख्तार– पांच रुपया सैकड़े तो हमारा बंधा हुआ है।

कृष्णचन्द्र– इसमें से एक कौड़ी भी न मिलेगी। मैं अपनी आत्मा बेच रहा हूं, कुछ लूट नहीं रहा हूं।

मुख्तार– आपकी जैसी मर्जी, पर मेरा हक मारा जाता है।

कृष्णचन्द्र– मेरे साथ घर तक चलना पड़ेगा।

तुरंत बहली तैयार हुई और दोनों आदमी उस पर बैठकर चले। बहली के आगे-पीछे चौकीदारों का दल था। कृष्णचन्द्र उड़कर घर पहुंचना चाहते थे। गाड़ीवान को बार-बार हांकने के लिए कहकर कहते– अरे, क्या सो रहा है? हांके चल।

ग्यारह बजते-बजते लोग घर पहुंचे। दारोगाजी मुख्तार को लिए हुए अपने कमरे में गए और किवाड़ बंद कर दिए। मुख्तार ने थैली निकाली। कुछ गिन्नियां थीं, कुछ नोट और कुछ नकद रुपए। कृष्णचन्द्र ने झट थैली ले ली और बिना देखे-सुने उसे अपने संदूक में डालकर ताला लगा दिया।

गंगाजली अभी तक उनकी राह देख रही थी। कृष्णचंद्र मुख्तार को विदा करके घर में गए। गंगाजली ने पूछा– इतनी देर क्यों की?

कृष्णचन्द्र– काम ही ऐसा आन पड़ा और दूर भी बहुत था।

भोजन करके दारोगाजी लेटे, पर नींद न आती थी। स्त्री से रुपए की बात कहते उन्हें संकोच हो रहा था। गंगाजली को भी नींद न आती थी। वह बार-बार पति के मुंह की ओर देखती, मानों पूछ रही थी कि बचे या डूबे।

अंत में कृष्णचन्द्र बोले– यदि तुम नदीं के किनारे खड़ी हो और पीछे से एक शेर तुम्हारे ऊपर झपटे तो क्या करोगी?

गंगाजली इस प्रश्न का अभिप्राय समझ गई। बोली– नदी मे चली जाऊंगी।

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