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वरदान (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :259
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8670

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‘वरदान’ दो प्रेमियों की कथा है। ऐसे दो प्रेमी जो बचपन में साथ-साथ खेले...


हुआ था। रेलगाड़ियों में यात्री रुई की भांति भर-भरकर प्रयाग पहुंचाए जाते थे। अस्सी-अस्सी बरस के वृद्ध...जिनके लिए वर्षों से उठना कठिन हो रहा था–  लंगड़ाते, लाठियां टेकते मंजिलें तय करके प्रयाग राज को जा रहे थे। बड़े-बड़े साधु महात्मा, जिनके दर्शनों की इच्छा लोगों को हिमालय की अंधेरी गुफाओं में खींच ले जाती थी, उस समय गंगाजी की पवित्र तरंगों से गले मिलने के लिए आये हुए थे। मुंशी शालिग्राम का भी मन ललचाया। सुवामा से बोले– कल स्नान है।

सुवामा– सारा मुहल्ला सूना हो गया। कोई मनुष्य नहीं दीखता।

मुंशी– तुम चलना स्वीकार नहीं करतीं, नहीं तो बड़ा आनन्द होता। ऐसा मेला तुमने कभी न देखा होगा।

सुवामा– ऐसे मेले से मेरा जी घबराता है।

मुंशी– मेरा जी तो नहीं मानता। जबसे सुना है कि स्वामी परमानन्द जी आये हैं, तबसे उनके दर्शन के लिए चित्त उद्विग्न हो रहा है।

सुवामा पहले तो उनके जाने पर सहमत न हुई, पर जब देखा कि यह रोके न रुकेंगे, तब विवश होकर मान गई। उसी दिन मुंशी जी ग्यारह बजे रात को प्रयागराज चले गए। चलते समय उन्होंने प्रताप के मुख का चुम्बन किया और स्त्री को प्रेम से गले लगा लिया। सुवामा ने उस समय देखा कि उनके नेत्र सजल हैं उसका कलेजा धक्-से हो गया। जैसे चैत्र मास में काली घटाओं को देखकर कृषक का हृदय कांपने लगता है, उसी भांति मुंशीजी के नेत्रों को अश्रुपूर्ण देखकर सुवामा कम्पित हुई। अश्रु की वे बूंदे वैराग्य और त्याग का आगाध समुद्र थीं। देखने में वे जैसे नन्हें जल के कण थीं पर थीं वे कितनी गंभीर और विस्तीर्ण।

उधर मुंशीजी घर के बाहर निकले और इधर सुवामा ने एक ठँण्डी सांस ली। किसी ने उसके हृदय में यह कहा कि अब तुझे अपने पति के दर्शन न होंगे। एक दिन बीता, दो दिन बीते, चौथा दिन आया और रात हो गई, यहां तक कि पूरा सप्ताह बीत गया, पर मुंशीजी न आए। तब सुवामा को आकुलता होने लगी। तार दिए, आदमी दौड़ाए, पर कुछ पता न चला। दूसरा सप्ताह भी इसी प्रयत्न में समाप्त हो गया। मुंशीजी के लौटने की जो कुछ आशा शेष थी, वह सब मिट्टी में मिल गई। मुंशी जी का अदृश्य होना उनके कुटुम्ब मात्र के लिए नहीं, वरन सारे नगर के लिए एक शोकपूर्ण घटना थी। हाटों में, दुकानों पर, हथाइयों में अर्थात चारों ओर यही वार्तालाप होता था। जो सुनता, वही शोक करता– क्या धनी, क्या निर्धन। यह शोक सबको था। उनके कारण चारों ओर उत्साह फैला रहता था। अब सर्वत्र उदासी छा गई। जिन गलियों से वे बालकों का झुण्ड लेकर निकलते थे, वहां अब धूल उड़ रही थी। बच्चे बराबर उनके पास जाने के लिए रोते और हठ करते थे। उन बेचारों को यह सुध कहां थी कि अब प्रमोद सभा भंग हो गई है! उनकी माताएं आंचल से मुख-ढांपकर रोतीं, मानो उसका सगा प्रेमी मर गया है।

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