नई पुस्तकें >> वरदान (उपन्यास) वरदान (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘वरदान’ दो प्रेमियों की कथा है। ऐसे दो प्रेमी जो बचपन में साथ-साथ खेले...
वैसे तो मुंशी जी के गुप्त हो जाने का रोना सभी रोते थे। परन्तु सबसे गाढ़े आंसू उन आढ़तियों और महाजनों के नेत्रों से गिरते थे, जिनके लेने-देने का लेख अभी नहीं हुआ था। उन्होंने दस-बारह दिन जैसे-तैसे करके काटे, पश्चात एक-एक करके लेखा के पत्र दिखाने लगे। किसी ब्रह्मभोज में सौ रुपये का घी आया है और मूल्य नहीं दिया गया। कहीं से दो-सौ का मैदा आया हुआ है। बजाज का सहस्रों का लेखा है। मन्दिर बनवाते समय एक महाजन से बीस सहस्र ऋण लिया था, वह अभी वैसे ही पड़ा हुआ है लेखा की तो यह दशा थी। सामग्री की यह दशा कि एक उत्तम गृह और तत्सम्बन्धी सामग्रियों के अतिरिक्त कोई वस्तु न थी, जिससे कोई बड़ी रकम खड़ी हो सके। भू-सम्पत्ति बेचने के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय न था, जिससे धन प्राप्त करके ऋण चुकाया जाय।
बेचारी सुवामा सिर नीचा किए हुए चटाई पर बैठी थी और प्रतापचन्द्र अपने लकड़ी के घोड़े पर सवार आंगन में टख-टख कर रहा था कि पण्डित मोटेराम शास्त्री– जो कुल के पुरोहित थे– मुस्कराते हुए भीतर आए। उन्हें प्रसन्न देखकर निराश सुवामा चौंककर उठ बैठी कि शायद यह कोई शुभ समाचार लाए हैं, उनके लिए आसन बिछा दिया और आशा भरी दृष्टि से देखने लगी। पण्डित जी आसान पर बैठे और सुंघनी सूंघते हुए बोले– तुमने महाजनों का लेखा देखा?
सुवामा ने निराशापूर्ण शब्दों में कहा– हां देखा तो।
मोटेराम– रकम बड़ी गहरी है। मुंशीजी ने आगा-पीछा कुछ न सोचा, अपने यहां कुछ हिसाब-किताब न रखा।
सुवामा– हां अब तो यह रकम बहुत गहरी नहीं तो इतने रुपये क्या, एक-एक भोज में उठ गये हैं।
मोटेराम– सब दिन समान नहीं बीतते।
सुवामा– अब तो जो ईश्वर करेगा सो होगा, मैं क्या कर सकती हूं।
मोटेराम– हां, ईश्वर की इच्छा तो मूल ही है, मगर तुमने भी कुछ सोचा है?
सुवामा– हां, गांव बेच डालूंगी।
मोटेराम– राम-राम! यह क्या कहती हो? भूमि बिक गई, तो फिर बात क्या रह जाएगी?
सुवामा– इसके सिवाय अब अन्य उपाय नहीं है।
मोटेराम– भला, पृथ्वी हाथ से निकल गई, तो तुम लोगों का जीवन निर्वाह कैसे होगा?
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