नई पुस्तकें >> वरदान (उपन्यास) वरदान (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘वरदान’ दो प्रेमियों की कथा है। ऐसे दो प्रेमी जो बचपन में साथ-साथ खेले...
सुवामा– हमारा ईश्वर मालिक है। वही बेड़ा पार करेगा।
मोटेराम– यह तो बड़े अफसोस की बात होगी कि ऐसे उपकारी पुरुष के लड़के-बाले दुःख भोगें।
सुवामा– ईश्वर की यही इच्छा है, तो किसी का क्या बस?
मोटेराम– भला, मैं एक युक्ति बता दूं कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे।
सुवामा– हां, बतलाइए बड़ा उपकार होगा।
मोटेराम– पहिले तो एक दरख्वास्त लिखवाकर कलक्टर साहिब को दे दो कि मालगुजारी माफ की जाय। बाकी रुपये का बन्दोबस्त हमारे ऊपर छोड़ दो। हम जो चाहेंगे करेंगे, परन्तु इलाके पर आंच ना आने पायेगी।
सुवामा– कुछ प्रकट भी तो हो, आप इतने रुपये कहां से लाएंगे?
मोटेराम– तुम्हारे लिये रुपये की क्या कमी है? मुंशी जी के नाम पर बिना लिखा-पढ़ी के पचास हजार रुपये का बन्दोस्त हो जाना कोई बड़ी बात नहीं है। सच तो यह है कि रुपया रखा हुआ है, तुम्हारे मुंह से ‘हां’ निकलने की देर है।
सुवामा– नगर के भद्र पुरुषों ने एकत्र किया होगा?
मोटेराम– हां, बात-की-बात में रुपया एकत्र हो गया। साहब का इशारा बहुत था।
सुवामा– कर-मुक्ति के लिए प्रार्थना-पत्र मुझसे ने लिखवाया जायेगा और न मैं अपने स्वामी के नाम ऋण ही लेना चाहती हूं। मैं सबका एक-एक पैसा अपने गांवों ही से चुका दूंगी।
यह कहकर सुवामा ने रुखाई से मुंह फेर लिया और उसके पीले तथा शोकान्वित बदन पर क्रोध-सा झलकने लगा। मोटेराम ने देखा कि बात बिगड़ना चाहती है, तो संभलकर बोले– अच्छा, जैसी तुम्हारी इच्छा। इसमें कोई जबरदस्ती नहीं है। मगर यदि हमने तुमको किसी प्रकार का दुःख उठाते देखा, तो उस दिन प्रलय हो जायगा। बस, इतना समझ लो।
सुवामा– तो आप क्या यह चाहते हैं कि मैं अपने पति के नाम पर दूसरों की कृतज्ञता का भार रखूं? मैं इसी घर में जल मरूंगी, अनशन करते-करते मर जाऊंगी, पर किसी की उपकृत न बनूंगी।
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