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अमृत द्वार

ओशो

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :266
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9546

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ओशो की प्रेरणात्मक कहानियाँ

एक दुखी व्यक्ति देखता है, हजारों कांटों की गिनती कर लेता है। और तब कहता है कि इतने कांटे इतने कांटे, कि एक फूल की कीमत नहीं है कोई। एक फूल का--हो या न हो, बराबर है। लेकिन आनंद के भाव से देखने वाले को दिखाई पड़ता है। कितनी अदभुत है यह दुनिया। जहाँ इतने कांटे हैं वहाँ एक फूल भी पैदा होता और जब कांटों में फूल पैदा हो सकता है तो कांटे हमारे देखने के भ्रम होंगे क्योंकि जिन कांटों के बीच फूल पैदा हो जाता है वे कांटे भी फूल सिद्ध हो सकते हैं। जो कांटों की गिनती करता है उसके लिए फूल भी कांटा दिखायी पड़ने लगता है और जो फूल के आनंद को अनुभव करता है उसके लिए धीरे-धीरे कांटे भी फूल बन जाते हैं। एक दुःखी और निराश और उदास चित्त से अगर हम पूछें कि आनंद के भाव में डूबे आदमी से हम पूछें कि कैसी पायी तुमने दुनिया? वह कहेगा बड़ी अदभुत थी। दो उजाले से भरे दिन होते थे, तब बीच में एक छोटी सी अंधेरी रात होती थी। रात भी है, दिन भी हैं। कांटे भी हैं फूल भी हैं। लेकिन हम क्या देखते हैं, हमारी दृष्टि क्या है इस पर पूरी की पूरी जीवन की दिशा और जीवन का आयाम निर्धारित होगा। और आश्वर्य तो यह है कि हम जो देखना शुरू करते हैं, धीरे धीरे उसके विपरीत जो था उसी में परिवर्तित होता चला जाता है। वह भी उसी में परिवर्तित होता चला जाता है। कांटे फूल बन सकते हैं। फूल कांटे बन सकते हैं। हमारी दृष्टि पर निर्भर है कि हम किस भांति देखना शुरू करते हैं।

एक अंधेरी रात में एक गरीब फकीर के झोपड़े पर एक चोर घुस आया उसने आकर द्वार पर धक्का दिया। वह गरीब फकीर का झोपड़ा था, द्वार पर कोई ताला नहीं लगा था, न सांकल बंद थी। घरों के ताले और साकलें हम इसलिए थोडी बंद करते हैं कि बाहर चोर हैं, बल्कि इसलिए कि हमारे भीतर चोर बैठा हुआ है, उससे हम हमेशा सचेत हैं। वह गरीब फकीर था, उसे चोरों का कोई खयाल भी न था, द्वार अटका था धक्का दिया, चोर भीतर घुस गया। चोर घबड़ा गया। आधी रात थी, उसे पता न था कि घर का मालिक जागता होगा। लेकिन वह फकीर बैठकर किसी को चिट्ठी लिख रहा था। उस चोर ने घबड़ाहट में छुरा बाहर निकाल लिया। सामने मालिक था लेकिन उस फकीर ने कहा, मेरे भाई, थोडी देर बैठ जाओ। मैं चिट्ठी पूरी कर लूं, कोई जल्दी तो नहीं है? वह चोर घबड़ाहट में बैठ गया। कुछ उसे सूझा नहीं कि क्या करे और क्या न करे, लेकिन छुरा सामने लिए रहा उस फकीर ने कहा, क्यों व्यर्थ हाथ थकाते हो? छुरे को भीतर रख लो। यहाँ छुरे की कोई भी जरूरत नहीं पड़ेगी। फिर उसने पूरी चिट्ठी की और पूछा कि कैसे आए हो क्या इरादा है? मैं क्या सेवा कर सकता हूँ? तुम क्या इरादा से आए हो, मुझे पता चल जाए? उसकी सीधी, सरल, निर्दोष आँखों में उस चोर ने झांका और झूठ बोलने का साहस उसे नहीं हो सका। उसने कहा, मैं चोरी करने आया हूँ, मुझे क्षमा करें।

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