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अंतिम संदेश

खलील जिब्रान

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :74
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9549

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विचार प्रधान कहानियों के द्वारा मानवता के संदेश

“हमें सदैव तट पर पहुंचने की चाह रहेगी, जिससे हम गा सकें और कोई हमें सुन सके, किन्तु उस लहर का क्या जोकि वहाँ टूट जाती है, जहां सुनने के लिए कोई कान न हो? यह हमारे अन्दर अनसुना ही तो है, जोकि हमारे सन्ताप के गहरे घावों को भरता है, यहां तक कि यह भी अनसुना ही है, जो कि हमारी आत्मा को काट-छांटकर आकार देता है और हमारे भाग्य को ढालता है।’’

तब उसके नाविकों में से एक आगे आया और बोला, "प्रभो, हमें इस बन्दरगाह तक पहुंचाने के लिए आप हमारी इच्छाओं के नायक बनें। और देखिए, अब हम वहां पहुंच गए हैं। फिर भी आप शोक की बातें करते हैं और ऐसे ह्रदयों की, जोकि मानो टूटने वाले हैं।"

और उसने उस नाविक को उत्तर दिया, "क्या मैंने स्वतन्त्रता की बात नहीं कही, और कुहरे के विषय में नहीं बताया, जोकि हमारी सबसे बडी स्वतन्त्रता है? फिर भी एक पीडा़ में ही मैं अपने जन्म के द्वीप की यह यात्रा कर रहा हूँ जैसे एक हत्या से बना प्रेत उन लोगों के सम्मुख सिर झुकाने आता है, जिन्होंने उसकी हत्या की थी।"

और तब एक और नाविक उठा और बोला, "ओह देखिए समुद्र की दीवार पर खडे़ हुए लोगों के झुन्ड। अपनी खामोशी में ही उन्हें आपके आने का दिन और घड़ी तक का पता लग गया है। अपनी प्रिय आकांक्षा को लिये वे अपने खेतों और अंगूर के बगीचों में से आकर आपके स्वागत के लिए इकट्ठे हो गए हैं।''

और अब अलमुस्तफा ने दूर लोगों के झुण्डों पर दृष्टि डाली। उसका ह्रदय उनकी आकांक्षाओं से भलीभांति परिचित था और वह शांत हो गया।

और तब लोगों की तेज पुकार सुनाई पड़ी। वह आवाज थी पुरानी यादगारों की और प्रार्थनाओं की।

उसने अपने नाविकों की ओर देखा और कहा, ''मैं इनके लिए क्या लाया हूं? एक दूसरे देश में मैं एक शिकारी था। लक्ष्य और शक्ति के साथ मैंने वे सब स्वर्ण-बाण समाप्त कर दिये जोकि इन्होंने मुझे दिये थे, किन्तु मैं तो कोई भी शिकार अपने साथ नहीं लाया, क्योंकि मैंने बाणों का पीछा नहीं किया। सम्भवतः वे जख्मी गरुड़ के पंखों के छोरों में उलझे हुए आकाश में दौड़ रहे हों और पृथ्वी पर कभी न गिरें, और यह सम्भव है कि वे ऐसे मनुष्यों के हाथ लग गए हों जिन्हें अपनी रोटी और मदिरा के लिए उनकी अत्यन्त आवश्यकता थी।

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