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अपने अपने अजनबी

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :165
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9550

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अज्ञैय की प्रसिद्ध रचना - सर्दियों के समय भारी हिमपात के बाद उत्तरी ध्रूव के पास रूस में अटके दो लोगों की कहानी।


सवेरा हुआ - घड़ी का सवेरा। प्रकाश कुछ भी बढ़ता हुआ नहीं लगा बल्कि कमरे में कुछ घुटन-सी मालूम हुई - मानो जितनी हवा हमारे साथ इस कब्र-घर में कैद हो गयी थी उसमें से ऑक्सीजनवाला अंश हम लोग पी चुके हैं। मुझे ध्यान आया, ऑक्सीजन ही हमें जीवित रखती है लेकिन वही हमें गलाती भी है - जीना ही जीर्ण होना है और जब जीने का साधन ऑक्सीजन नहीं रहती तब जीर्ण होने की क्रिया भी रुक जाती है। इस कब्रगाह में हमारी पैदा की हुई कार्बन गैस, जो हमें मार देगी, आगे उस कब्रगाह में सड़ने से हमें बचाती है। फिर - हमारे मर जाने के बाद इस 'फिर' के अर्थ क्या हैं यह तो मैं नहीं जानती! - जब बर्फ गलेगी और लोग हमें ढूँढ़ने आएँगे तब हम यहीं ज्यों-के-त्यों सुरक्षित पड़े होंगे - मैं ऐसी ही यहाँ - तब भी समूची किन्तु कान्तिहीन - और बुढ़िया वहाँ, वैसी ही विवर्ण पारदर्शी, और इसलिए तब भी एक कान्ति लिए हुए! इस कल्पना से मुझे बुढ़िया पर फिर गुस्सा हो आया। पर मैंने अपने को याद दिलाया कि आज क्रिसमस का दिन है, बड़ा दिन, क्षमा और सद्भावना का दिन। उसकी बूढ़ी साँसें मुझसे कहीं कम ही ऑक्सीजन खाती होंगी - बल्कि जिस बहुत नीचे स्तर पर उसका जीवन चल रहा है उस पर तो शायद बिना ऑक्सीजन के ही काम चल सकता है। मैंने सुना है कि जो लोग बर्फ के नीचे दब जाते हैं, उनकी ऑक्सीजन की जरूरत भी कम हो जाती है और इसलिए उनका उतनी से भी काम चल जाता है जितनी बर्फ के कणों में बँधी हुई होती है।...

बड़ा दिन। क्षमा, शान्ति और मानवीय सद्भावना का दिन। प्यार के पैगम्बर का जन्मदिन। मैंने आयासपूर्वक अपने स्वर में स्फूर्ति लाकर कहा, 'क्रिसमस मुबारक आंटी सेल्मा!'

जो जवाब आया उससे मैं चौंकी। आंटी ने कहा, 'मैंने तो आग जला दी है और कहवा बना लिया है, आओ। क्रिसमस मुबारक!'

यह सब बुढ़िया ने कब कर लिया? मैंने तो पैरों की कोई आहट नहीं सुनी। न बरतनों की खनक। बुढ़िया बहुत ही चुपचाप काम करती है। लेकिन और नहीं तो उसके पैरों के घिसटने का थोड़ा-सा शब्द होता। मैं तो यही समझती रही कि मैं लगातार उसका कराहना सुनती रही हूँ।

नाश्ता करते-करते - नाश्ता तो मैंने ही किया, आंटी ने कुछ नहीं खाया, और कहवे में भी थोड़ा पानी मिलाकर दो-चार घूँट पिये - आंटी ने कहा, 'मैं कल्पना कर रही हूँ कि बाहर खूब खुली धूप है - बड़ी निखरी हुई स्निग्ध धूप, जिसके घाम में बदन अलसा जाए!'

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