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अपने अपने अजनबी

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :165
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9550

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अज्ञैय की प्रसिद्ध रचना - सर्दियों के समय भारी हिमपात के बाद उत्तरी ध्रूव के पास रूस में अटके दो लोगों की कहानी।

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19 दिसम्बर :

शाम को हम लोग ताश खेलने बैठे थे। आंटी सेल्मा न जाने कहाँ से एक पुराना डिब्बा ले आयी थी। जिसमें ताश की जोड़ी रखी थी। मुझसे बोली, 'मुझे खेलना तो नहीं आता, लेकिन तुम सिखाओगी तो सीख लूँगी। तुम्हारा मन भी लगा रहेगा।'

ऐसी बात नहीं थी कि वह ताश का खेल बिलकुल न जानती हो। थोड़ी देर बाद जब हम लोग खेलने लगे तो मैंने पाया कि ऐसा नहीं है कि बुढ़िया को उलझाये रखने के लिए या समय काटने के लिए ही हम लोग जबरदस्ती खेल रहे हैं। खेल अपने-आप चल निकला था। लेकिन एकाएक बुढ़िया की ओर से पत्ता फेंकने में देर होने पर मैंने आँख उठाकर देखा - पत्ता खींचते-खींचते वह सो गयी थी, यद्यपि पत्तों पर उसकी पकड़ ढीली नहीं हुई थी। मैं चुपचाप बैठी रही। अगर उसके हाथ से पत्ते फिसल रहे होते तो लेकर समेट देती, लेकिन इस हालत में पत्ते लेने की कोशिश में वह जाग जाती। मैं किंकर्तव्यविमूढ़-सी उसके चेहरे की ओर देखती रही। साधारणतया मैं उसकी ओर प्राय: नहीं देखती, क्योंकि मुझे डर लगा रहता है कि कहीं मेरी आँखों में कोई छिपा हुआ विरोध-भाव उसे न दीख जाए। क्या फायदा, जब इस कब्र-घर में जितने दिन साथ रहना है, रहना ही है...

अब उसका चेहरा देखते-देखते एकाएक मुझे लगा कि वह बड़ा दिलचस्प चेहरा है, जिसे देर तक देखा जा सकता है। लेकिन अनदेखे ही, क्योंकि बुढ़िया से आँख मिलने पर शायद सब कुछ बदल जाता।

चेहरे की हर रेखा में इतिहास होता है और आंटी सेल्मा का चेहरा जिन रेखाओं से भरा हुआ है वे सब केवल बर्फानी जाड़ों की देन नहीं हैं। लेकिन क्या मैं उस इतिहास को ठीक-ठीक पढ़ सकती हूँ? आँखों की कोरों से जो रेखाएँ फूटती हैं और एक जाल-सा बनाकर खो जाती हैं, उनमें कहीं बड़ी करुणा है - एक कर्मशील करुणा, जो दूसरों की ओर बहती है, ऐसी करुणा नहीं जो भीतर की ओर मुड़ी हुई हो और दूसरों की दया चाहती हो। लेकिन नासा के नीचे और होंठों के कोनों पर जो रेखाएँ हैं वे इस करुणा का खंडन न करती हुई भी और ही कुछ कहती हैं... मेरी आँखें सारे चेहरे पर घूमकर फिर बुढ़िया की बन्द आँखों पर टिक गयीं। अगर उसकी पलकें पारदर्शी होतीं - एक ही तरफ से पारदर्शी, जिससे कि बुढ़िया तो सोयी रहती पर मैं उसकी आँखों में झाँक सकती - तो मैं शायद इस पहेली का उत्तर पा लेती। उन आँखों से पूछ लेती कि बुढ़िया के जीवन का रहस्य क्या है - क्या बात है उसके अनुभव-संचय में जिस तक मैं पहुँच नहीं पाती हूँ।

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