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असंभव क्रांति

ओशो

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :405
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9551

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माथेराम में दिये गये प्रवचन

शायद इसीलिए वह पहला क्रांतिकारी व्यक्ति जिसने जूते की ईजाद की थी, उसके वंशज आज भी अपमानित हैं--आज भी चमार का कोई आदर नहीं है। शायद पंडितों का ही हाथ होगा इसमें।

इस कहानी से इन तीन दिनों की चर्चा को मैं शुरू करना चाहता हूँ। इस वजह से कि सारी दुनिया में सभी मनुष्यों का एक ही प्रश्न है--दुःख के कांटे जीवन को पीडित किए रहते हैं। अशांति के कांटे, चिंता के कांटे, अज्ञान और अंधकार के कांटे गड़ते हैं और कोई उपाय समझ में नहीं आता कि इनसे कैसे बचा जाए। और सभी लोग बुद्धिमानों की, तथाकथित बुद्धिमानों की सलाह मानकर सारी पृथ्वी को ढकने की आयोजना में लग जाते हैं--अपने को छोड़कर, अपने को भूलकर। अपने पैर को ढकने की सीधी सी युक्ति किसी की भी समझ में नहीं आती।

इतनी सीधी युक्ति है, लेकिन इस जमीन पर दस-पांच ही ऐसे लोग हुए हैं, जिन्होंने अपने पैर ढके हों। अधिक लोग पृथ्वी को ही बदलने की कोशिश करते रहे हैं। और ये अधिक लोग, जितनी इन्होंने कोशिश की है, जमीन को ढक देने की, धूल-काटों से अलग कर देने की, उतनी ही जमीन मुश्किल में पड़ती चली गई। इन सभी सुधारकों के कारण ही मनुष्य जाति इतनी पीड़ाओं में उलझ गई है कि आज कोई छुटकारा भी दिखाई नहीं पड़ता है।

लेकिन एक सीधी सी बात थी कि हर आदमी अपने पैर ढक ले और काटों से मुक्त हो जाए। लेकिन यह सीधी सी बात--आश्चर्य ही है कि मुश्किल से ही कभी किसी को दिखाई पडती है। इस सीधी सी बात को ही इन तीन दिनों में समझाने की आपको कोशिश करूंगा। नाराज आप जरूर होंगे मन में, क्योंकि सीधी बात किसी को समझाई जाए तो नाराजगी होती है।

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