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गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :590
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9552

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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।

क्यों?

हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।

एक बार हमारे मुहल्ले के एक मन्दिर में महाभारत की कथा रखायी गयी। यह वे दिन थे, जब आर्यसमाज और सनातनधर्म सभा में शास्त्रार्थों की धूम थी। मुहल्ले के कुछ सनातनधर्मी युवको में धर्म ने जोश मारा और वे हिन्दुओं की प्रसिद्ध धर्म-पुस्तक महाभारत की कथा कराने लगे।उस समय एक वयोवृद्ध पण्डित ने कहा था, ‘‘ये नौजवान ठीक नहीं कर रहे। इसका परिणाम ठीक नहीं होगा। हिन्दुओं में रामायण की कथा होती है, परन्तु महाभारत की नहीं।’’

मैं इस बात को इस प्रकार समझा कि प्रचलित हिन्दू-धर्म में कुछ है, जो महाभारत में लिखे हुए के अनुकूल नहीं। मेरे विस्मय का ठिकाना नहीं रहा, जब कथा में आदि पर्व के समाप्त होने से पूर्व ही एक दिन श्रोतागणों में मुक्का-मुक्की हो गयी। बात पुलिस तक गयी और बहुत कठिनाई से दोनों दलों में सन्धि करायी गयी। तब से मैं इस विषय पर बहुत मनन करता हूँ। कई बार महाभारत पढ़ा है। इस किंवदंति और महाभारत के पाठ की, मेरे मन पर हुई प्रति-क्रिया का परिणाम यह पुस्तक है।

–         गुरुदत्त

प्रथम परिच्छेद

1

बम्बई से दिल्ली लौट रहा था। फ्रन्टियर मेंल फर्स्ट क्लास के डिब्बे में सीट रिजर्व कराकर यात्रा हो रही थी। डिब्बे में एक साहब और थे। सायंकाल गाड़ी में सवार हुआ तो बिस्तर लगा दिया। दूसरे यात्री ने पहले ही बर्थ पर बिस्तर लगाया हुआ था। मैंने बिस्तर बिछाया तो वह नीचे सीट पर बैठ गया।

गाड़ी चल पड़ी। साथी यात्री बार-बार मेरी ओर देखता और मुस्कराकर कुछ कहने के लिए तैयार होता, परन्तु कहता कुछ नहीं था। ऐसा प्रतीत होता था कि कोई उसको कुछ कहने से रोक रहा है। मैं उसकी इस हिचकिचाहट को देख रहा था, परन्तु स्वयं को उससे सर्वथा अपरिचित जान कुछ कहने का मेंरा भी साहस नहीं हो रहा था।

मैंने अपने अटेची-केस में से ‘रीडर्स डाईजेस्ट’ निकाला और पढ़ना आरम्भ कर दिया। वे महाशय सीट पर ही पल्थी मार कर बैठ गये। उनकी आँखें मुँदी हुई थीं, इसलिए मैंने समझा कि वे सन्ध्योपासना कर रहे होंगे। अगले स्टेशन पर गाड़ी खड़ी हुई। भोजन के लिए डाईनिंग कार में जाने के विचार से मैंने ‘रीडर्स डायजेस्ट’ को अटैची में रख, उसको ताला लगा सीट पर से उठ खड़ा हुआ तो देखा कि सहयात्री भी उतरने के लिए तैयार खड़ा है। मैंने कहा, ‘‘मैं खाना खाने के लिए जा रहा हूँ। और आप...।’’

‘‘मैं भी चल रहा हूँ। हम गार्ड को कहकर ताला लगवा देते हैं।’’

‘‘ठीक है।’’ मैंने कहा और गाड़ी से उतर कर गार्ड के कम्पार्टमेंट की ओर चल पड़ा। जब तक गार्ड को कम्पार्टमेंट बन्द करने के लिए लाया, मेंरा साथी धोती कुरता पहने, कन्धे पर अँगोछा डाले तैयार खड़ा था। गार्ड ने डिब्बे को चाबी लगाई तो हम ‘डाइनिंग कार’ में एक-दूसरे के सामने जा बैठे। मैंने सोचा, अब परिचय हो जाना चाहिए। इस कारण यात्रा में परिचय करने का स्वाभाविक ढंग अपनाते हुए मैंने उससे पूछा, ‘‘आप कहाँ तक जा रहे है?’’
‘‘अमृतसर तक।’’

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