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गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :590
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9552

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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।


‘‘तुम दोनों को पाँच वर्ष का कारावास। वहाँ तुम्हारे साथ किसी तीसरे का सम्पर्क नहीं हो सकेगा। यदि इस पाँच वर्ष के काल में तुम ऐसा ही रूपवान बालक अथवा बालिका उत्पन्न कर सकीं, तो ये तीनों बालक इस पुरुष के माने जायेंगे और धन के उत्तराधिकारी होंगे। अन्यथा यह धन राज्य का माना जायेगा। इसमें से उस स्त्री को इसके जीवन-काल तक, दो सहस्त्र प्रतिवर्ष जीवन-यापन के लिए मिलेगा।’’

वे दोनों, गणिका तथा वह पुरुष, पीत-सुख देखते रह गये। एक विचार से यह न्याय सन्तोष-जनक था, परन्तु एक अन्य दृष्टिकोण से अन्याययुक्त भी था। यह दण्ड अपराध से अधिक था।

गणिका ने पूछा, ‘‘हमारे कारावास के दिनों में इन बालकों का क्या बनेगा?’’

‘‘तुम्हारी सम्पत्ति में से इनका पालन होगा और शिक्षा-दीक्षा का प्रबन्ध कर दिया जायेगा।’’

‘‘महाराज!’’ गणिका ने पूछा, ‘‘यदि मैं इस भद्र पुरुष की सम्मत्ति पर से अपने अधिकार की माँग वापस ले लूँ तो?’’

‘‘तो तुमको जीवन-भर के लिए कारावास का दण्ड मिलेगा।’’

‘‘तब तो मेरा अधिकार बना रहे। मैं अपनी माँग वापस नहीं ले रही।’’

मैं समझता था कि यह बात सर्वथा अयुक्तिसंगत हो गई है। पश्चात्ताप करने पर दण्ड बढ़ाया जा रहा था। इस कारण गणिका अपना पश्चात्ताप वापस ले रही थी।

निर्णय हो गया। दो सुभट्ट आये और गणिका तथा उसके पति को बाँधकर ले गये।

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