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गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :590
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9552

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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।


‘‘विधान नियोग का है इस पर भी यह एक श्रेष्ठ एवं प्रशंसनीय विधान नहीं। परन्तु महाराज! मैं तो एक समृद्ध राज्य के लिए उत्तराधिकारी उत्पन्न करने की बात कह रहा था।’’

‘‘यही तो मैं भी कह रहा हूँ। क्या हानि है इसमें? यदि विचित्रवीर्य का पुत्र उत्पन्न होता तो वह उचित उत्तराधिकारी होता और यदि कृष्ण द्वैपायन का होगा तो वह उचित नहीं होगा? संजय! तुम्हारे पिता से ऐसे ही विषयों पर मेरा मतभेद रहा है। वे उस काल की बातें करते हैं, जब विवाह-पद्घति ही नहीं थी। तब विधवा ही नहीं होती थीं और नियोग-व्यवस्था की आवश्यकता नहीं पड़ती थी।’’

‘‘महाराज! वे किस काल की बातें करते थे, मैं नहीं जानता। मेरा निवेदन तो दशरथी राम के काल की व्यवस्था से हैं। राम चौदह वर्ष तक अपनी पत्नी के साथ वन में रहे, परन्तु उन्होंने सहवास नहीं किया था। इस प्रकार सीता, राम से त्यक्त बाल्मीकि आश्रम में रही, परन्तु उसको पति से मिलने की इच्छा नहीं हुई। राम को दूसरा विवाह कर लेने के लिए कहा गया, परन्तु उन्होंने नहीं किया।

‘‘राज्य को राम ने कभी अपनी सम्पत्ति नहीं माना था। यदि माना होता तो वे प्रजा द्वारा व्यवस्था के पश्चात् पत्नी का त्याग न करते। भरत ने भी राज्य को अपना नहीं माना था। उन्होंने उसको केवल प्रजा की धरोहर मानकर ही शासन किया था।’’

‘‘तो तुम क्या चाहते हो?’’

‘‘देखिये ऋषिवर! मैं हस्तिनापुर का सेवक हूँ। इस कारण इस राज्य की प्रजा के कल्याण की बात ही कहता हूँ। राजमाता सत्यवती का परिवार चलना चाहिए अथवा नहीं, यह उनके अपने विचार करने की बात है। आपकी भी तो सन्तान है। अतः राजमाता का परिवार तो निःशेष नहीं हो रहा। हाँ, हस्तिनापुर राज्य का उत्तराधिकारी नहीं मिल रहा। वही बनाने की राजमाता की इच्छा है।’’

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