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गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :590
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9552

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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।


‘‘और हस्तिनापुर के विषय में?’’

‘‘यदि तुम चलना पसन्द करो तो हस्तिनापुर चल सकता हूँ।’’

‘‘मैं तो यहाँ अपने माता-पिता के पास रहना चाहूँगी।’’

‘‘तो ठीक है। परन्तु एक बात है। मेरी देश-विदेश भ्रमण में रुचि है। जब तुम चल सकोगी तो हम अन्य देश देखने चलेंगे।’’

‘‘उनको देखने से क्या होगा?’’

‘‘ज्ञान-वृद्धि होगी।’’

‘‘देश-विदेश के विषय में ज्ञान बढ़ाने की क्या आवश्यकता है?’’

‘‘यह तुम अपने पिता से पूछना। देखो मोद! मुझको हस्तिनापुर के राज्य में सेवा-कार्य क्यों मिल रहा है? वे बल इसलिए कि मुझको कई देशों का ज्ञान है।’’

इस प्रकार उस समय बात टल गई, परन्तु मैं मन में चिन्ता अनुभव करने लगा कि वास्तव में मेरे पैरों में बेड़ियाँ पड़ गई हैं और इनका मेरे जीवन पर बुरा प्रभाव पड़ेगा। मैं दो राज्यों में कार्य करने के लिए नियुक्त था और किसी समय भी कहीं भेजा भी जा सकता था।

उस दिन मैं नौका में घूमने गया तो मोदमन्ती साथ नहीं थी। वास्तव में गर्भ बढ़ने के साथ-साथ उसकी घूमने-फिरने में रुचि कम होने लग गई थी।

नौका मैंने नदी के मध्य में ले जाकर छोड़ दी और हस्तिनापुर से आया पत्र निकालकर पढ़ने लगा। पत्र राजकुमार देवव्रत के अपने हाथ से लिखा हुआ था। पत्र इस प्रकार था–

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