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गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :590
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9552

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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।


आयुक्तक ने इस परिवर्तन का कारण नहीं बताया। उसने पूछा, संजयजी! आपका पत्र भेजने का प्रबन्ध हो गया है। जैसा आप चाहते हैं, वैसा ही कर दिया जायेगा।’’

मैंने कहा, ‘‘धन्यवाद! मैं नहीं चाहता कि देवेन्द्र का पत्र कोई उसकी स्वीकृति के बिना पढ़े। यदि आप इस बात का वचन देते हैं, तो मैं यह पत्र उस व्यक्ति को, जो आप भेजेंगे, दे दूँगा। आप उसको मेरे पास, सोसभद्रजी के गृह पर भेज दीजियेगा।’’

इस पर आयुक्तक ने मुस्कराते हुए कहा, आपको सोमभद्रजी के गृह पर कष्ट तो बहुत हो रहा होगा। आप राजप्रासाद में आकर रह सकते है।

इस प्रस्ताव पर तो मेरा विस्मय और भी बढ़ गया। मेरे मन में एक भय समा गया कि कहीं राजप्रासाद के भीतर आते ही मुझको बन्दी न बना लिया जाए। मेरा विचार था कि सुरराज के पास मेरी सूचना पहुँचनी चाहिए, तब सब ठीक हो जायेगा।

मैंने उक्त प्रस्ताव का यह उत्तर दिया, ‘‘मैं सोमभद्रजी की लड़की से बहुत ही प्रेम करता हूँ और उसको छोड़ स्वर्ग में भी नहीं जाऊँगा।’’

‘‘हाँ-हाँ, उसको भी आपके साथ ही स्थान मिलेगा। आपको आपकी पत्नी से पृथक् करने का हमारा विचार नहीं है।’’

‘‘तो उससे पूछकर ही मैं इसकी स्वीकृति दे सकता हूँ।’’

वह मान जायेगी। मैं सोमभद्रजी को कह दूँगा। मुझको ज्ञात है कि वह गर्भवती है। अतः उसकी माँ को आपके साथ रहने की स्वीकृति होगी।’’

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