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गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :590
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9552

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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।


‘‘तो इसका निर्णय कैसे हो सकता है? सेनाओं का युद्घ अथवा एक देश को दूसरे देश पर आक्रमण भी तो इस विषय में निर्णय नहीं दे सकते।’’

‘‘देखिये महाराज’! धर्माधर्म, उचितानुचित तथा हिताहित का निर्णययुद्ध से नहीं हो सकेगा, किन्तु इनकी स्थापना तो युद्ध से हो सकती है। इससे शर्त यह है कि धर्म की विजय के इच्छुक सब एकत्र होकर धर्म का पथ ग्रहण करें।’’

‘‘इस पर सुरराज खिलखिला कर हँस पड़े। उनकी हँसी अत्यन्त ही मनमोहक थी। उनको हँसता देख शची तथा अन्य सभी उपस्थित अप्सराएँ, सावधान हो सुरराज की ओर निहारने लगीं। किन्तु महाराज इन्द्र ने हँसने के पश्चात् बात बदल दीं। उन्होंने पूछा, ‘क्या चन्द्र-वंशियों का राज्य धर्म संवर्द्धक है?’’

‘‘नहीं महाराज! वे लोग नास्तिक रहे हैं। वे प्रजा-पालन की ओर इतना ध्यान नहीं देते, जितना कि अपने सुख-भोग की ओर। इनके राज्य में निष्ठावान ब्राह्मणों को मान प्राप्त नहीं है। वे ब्राह्मण ही यहाँ मान पा सकते हैं, जो चाटुकार और राज्य का हर समय समर्थन करने वाले हैं। परिणामस्वरूप प्रजा का घोर पतन हो रहा है।’’

‘‘ऐसा क्यों हो रहा है?’’

‘‘राजा का आचरण अनुकरणीय होता है। महाराज शान्तनु का समस्त जीवन वासनापूर्ण रहा है। वे गंगा पर इतने आसक्त हुए कि उनके अपने बच्चों के पैदा होते ही मार डालने के अमानुषीय कृत्य को भी मानते रहे।’’

‘‘इसका अर्थ यह हुआ कि हस्तिनापुर राज्य में आज सहस्त्रों बच्चे पैदा होते ही मारे जा रहे हैं। स्त्रियाँ अपने पतियों को कहती हैं कि धर्मात्मा शान्तनु के लिए जो बात ठीक है, वह आपके लिए क्यों ठीक नहीं है? जो बात गंगा के लिए उचित है, वह हमारे लिए भी उचित ही माननी चाहिए।’’

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