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गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :590
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9552

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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।


‘‘वह हँस पड़ी और बोली, ‘मुख तो गौण है। सौन्दर्य के अन्य लक्षण हैं। उन लक्षणों के लिए ही तो मेरी ख्याति है। उन्हीं के कारण महाराज मेरा चित्र आपसे बनवाना चाहते हैं।’’

‘‘मैं उसके कहने का अर्थ समझकर काँप उठा। मैं समझा कि वह मेरे सामने अवस्त्र ही अपना चित्र खिंचवाना चाहती है। इस समय मेरी समझ में आया कि इन्द्रदेव मेरी परीक्षा ले रहे हैं। मैं देख रहा था कि मेरा ब्रह्मचर्य भ्रष्ट करने के साधन जुटाये जा रहे हैं। और यदि मैं परीक्षा में सफल हुआ तो वे मुझे उस काम के योग्य समझेंगे, जिस पर कि मेरी नियुक्ति होने वाली है।’’

‘‘इस विचार के मन में आते ही मुझको अपने पिताजी की एक बात स्मरण हो आयी। उनका कहना था कि अप्राप्य वस्तुओं को छोड़ना त्याग नहीं कहाता। उसके अभाव में मन में शान्ति बनाये रखने को सन्तोष कहते हैं। त्याग और संन्यास तो उस अवस्था को कहते हैं जबकि प्राप्य वस्तु को त्याग दिया जाय।

‘‘मैं मन में विचार करता था कि मेरी इन्द्रियों पर निग्रह की परीक्षा तो तभी है जब इनका भोग सामने उपस्थित हो। अतः मैंने मन को दृढ़ कर पूछा, ‘क्या नाम है देवी आपका?’’

‘‘मेनका।’’

‘‘ओह! मेरे मुख से निकल गया–‘वही मेनका जो ऋषि विश्वामित्र के पतन में कारण बनी थी?’’

‘‘नहीं, सुरराज से उस मेनका की पुत्री। परन्तु युवक! मैं अपनी माँ से कम सुन्दर नहीं हूँ।’’

‘‘अच्छी बात है, जिस अंग का चित्र चाहती हो उसका दर्शन करा दो।’’

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