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भगवान बुद्ध की वाणी

स्वामी ब्रह्मस्थानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :72
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9553

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भगवान बुद्ध के वचन

¤ दोनों पक्षों की धैर्यपूर्वक सुनो। जो व्यक्ति दोनों पक्षों को तोलता है उसे मुनि कहा जाता है। जब दोनों पक्ष अपने मामले प्रस्तुत कर देते हैं, तब संघ को समझौता सम्पन्न करने दो और एकता की स्थापना की घोषणा करने दो।

¤ क्रोध में उच्चारित शब्द सबसे तीक्ष्ण तलवार है, लोलुपता सबसे घातक विष है, वासना प्रचण्डतम अग्नि है, अज्ञान गहनतम रात्रि है।

¤ अज्ञान से संसार ध्वस्त होता है। ईर्ष्या और स्वार्थपरायणता मैत्री को तोडती है। द्वेष सर्वाधिक तीव्र ज्वर है और बुद्ध उत्कृष्टतम वैद्य है।

¤ जो दुष्ट व्यक्ति एक सज्जन का अपमान करता है, वह उसके समान है, जो ऊपर देखता है और आकाश पर थूकता है, थूक से आकाश दूषित नहीं होता, बल्कि वह वापस आता है उसी को दूषित करता है।

¤ कोई व्यक्ति किसी को धोखा न दे। दूसरे की अवमानना न करे। क्रोध या उग्रता में भरकर किसी की हानि करने की इच्छा न करे।

¤ जिसका कामभाव नष्ट हो गया है, जो अहंकार से मुक्त है, जिसने वासनाओं के सभी पथों पर विजय पायी है, वह शान्त, पूर्णतया सुखी और दृढ़ मनवाला होता है। ऐसा व्यक्ति संसार में सम्यक् रूप से विचरण करता है।

¤ जो श्रद्धा और सद्गुण से परिपूर्ण है, जो प्रतिष्ठित एवं सम्पन्न है, वह जहाँ भी भ्रमण करता है, उसे सर्वत्र सम्मान मिलता है।

¤ जिस प्रकार स्वस्थ एवं दृढ़ जड़ोंवाले वृक्ष को काट डालने पर वह पुनः बढने लगता है, उसी प्रकार जब तक प्रच्छन्न तृष्णा को निर्मूल नहीं किया जाता, तब तक दुःख बार-बार पल्लवित होता है।

¤ इस संसार में जो भी इस क्षुद्र उद्दण्ड तृष्णा को पराजित करता है, उससे दुःख ठीक वैसे ही विलग हो जाते हैं, जैसे कमल-पत्र से जल की बूँदें।

¤ तुम्हें स्वयं चेष्टा करनी होगी। तथागत तो मात्र शिक्षक हैं। जो ध्यानी व्यक्ति मार्ग में प्रवेश करते हैं, वे मार के पाशों से मुक्त हो जाते हैं।

¤ जिस प्रकार जग लोहे से उत्पन्न होते हुए भी पैदा होते ही लोहे को खा जाता है, वैसे ही पापी व्यक्ति के अपने कर्म ही उसे दुर्गति की ओर ले जाते हैं।

¤ ऐसा कोई व्यक्ति न तो हुआ था, न होगा और न है, जो पूरी तरह से निन्दित हो या पूर्णत प्रशंसित।

¤ स्वास्थ्य उच्चतम लाभ है, सन्तोष महत्तम सम्पदा है, गोपनीय उत्कृष्टतम रिश्तेदार है, निब्बाण (निर्वाण) अत्युच्च आनन्द है।

¤ विजय से द्वेष उत्पन्न होता है, पराजित दुःखपूर्ण जीवन व्यतीत करते हैं। विजय और पराजय का त्याग करने पर ही सुखपूर्ण शान्त जीवन बिताया जा सकता है।

¤ काम के समान कोई अग्नि नहीं है तथा द्वेष के समान कोई अपराध नहीं है। शरीर के समान कोई व्याधि नहीं है और शान्ति (निर्वाण) से ऊँचा कोई आनन्द नहीं।

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