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भगवान श्रीकृष्ण की वाणी

स्वामी ब्रह्मस्थानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :74
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 9555

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भगवान श्रीकृष्ण के वचन

¤ इस प्रकार संयत मनवाला योगी आत्मा को निरन्तर युक्त करते हुए मुझमें स्थित परमनिर्वाणरूप शान्ति को प्राप्त करता है।

¤ हे अर्जुन! यह योग न तो बहुत खानेवाले के लिए है और न अत्यल्प खानेवाले के लिए ही। यह न तो अधिक नींद लेनेवाले के लिए है और न अत्यधिक जागनेवाले के लिए ही।

¤ जो आहार और विहार में, कर्मों के सम्पादन में तथा निद्रा और जागरण में मिताचारी है, उसके लिए योग समस्त दुखों का नाश कर देता है।

¤ जिस समय अत्यन्त वश में किया हुआ चित्त परमात्मा में सुस्थित हो जाता है, उस समय समस्त कामनाओं की स्पृहा से रहित पुरुष योगयुक्त कहा जाता है।

¤ जिस प्रकार वायुरहित स्थान में स्थित दीपक चलायमान नहीं होता, ठीक यही उपमा परमात्मा के ध्यान में लगे हुए योगी के जीते हुए चित्त के लिए दी जाती है।

¤ जिसे प्राप्त करने के उपरान्त व्यक्ति सोचता है कि इससे बड़ा लाभ कोई नहीं है तथा जिसमें प्रतिष्ठित होकर वह भारी से भारी दुःखों से भी विचलित नहीं होता, उस स्थिति को योग कहा जाता है। यह दुःखों के सम्पर्क से अलगाव की स्थिति है।

¤ हृदय की हताशा से अविचलित रहकर अध्यवसायपूर्वक इस योग का अभ्यास किया जाना चाहिए।

¤ संकल्प से उत्पन्न होनेवाली समस्त कामनाओं का समग्र रूप से परित्याग करके तथा मन के द्वारा इन्द्रियों के समस्त समूह को चारों ओर से उनके विशिष्ट विषयों से विलग करते हुए इस योग का अभ्यास किया जाना चाहिए।

¤ यह अस्थिर और चंचल मन जिन-जिन सांसारिक पदार्थों में विचरण करता है, उसे उन-उनसे रोककर बारम्बार परमात्मा के ही वश में करना चाहिए।

¤ जिस योगी का मन पूर्णतया प्रशान्त है और जिसके आवेग प्रशमित हैं, जो उद्वेग से मुक्त है और ब्रह्म से तद्रूप हो गया है, उसे परमानन्द की प्राप्ति होती है।

¤ अर्जुन ने कहा - हे मधुसूदन! इस योग को आपने समत्वभाव के रूप में बताया है, किन्तु मैं मन की चंचलता के कारण यह नहीं देख पाता कि इसकी स्थिति अधिक काल तक कैसे टिकेगी?

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