धर्म एवं दर्शन >> भगवान श्रीराम सत्य या कल्पना भगवान श्रीराम सत्य या कल्पनाश्रीरामकिंकर जी महाराज
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साधकगण इस प्रश्न का उत्तर हमेशा खोजते रहते हैं
हे प्रभु! इस कलियुग में भी आपके नाम के साथ तुलसीदास ने नाते का निर्वाह किया और-
सकल सभा
सारी सभा ने तुलसीदास की बात का समर्थन करते हुए कहा कि यह सत्य है, सत्य है। तुलसीदासजी तो पहले ही सारी सभा के सभी सदस्यों को अपने पक्ष में कर चुके थे। सबने कहा कि लक्ष्मणजी बिल्कुल ठीक कह रहे हैं। तब लोगों की दृष्टि गयी कि देखें भगवान् राम क्या कहते हैं? तो भगवान् राम के मुँह से वाक्य निकला कि सत्य है। बिल्कुल ठीक है। तो लोगों ने कहा कि महाराज! आपको कैसे पता चला? भगवान् राम तुरन्त कहते हैं कि सत्य है-
बिहँसि राम कह्यो 'सत्य है, सुधि मैं हूँ लही है'।
सन्निकट में सीताजी बैठी हुई थीं तुलसीदासजी पहले ही सीताजी को भी प्रणाम कर चुके थे कि माँ! एकान्त में जब भगवान् आवें तो मेरी प्रार्थना आप उन तक पहुँचा दीजिएगा। मानो भरी सभा में भगवान् श्रीराम ने यह स्वीकार किया कि तुलसीदास! तुम्हारी बात जनकनन्दिनी के द्वारा एकान्त में भी मेरे पास पहुँच चुकी है और तब इसका अन्तिम परिणाम क्या होता है? 'विनय-पत्रिका' इन्हीं शब्दों के साथ समाप्त करते हैं कि-
परी रघुनाथ हाथ सही है। -विनय-पत्रिका, 279/3
श्रीराम ने मेरी 'विनय-पत्रिका' पर हस्ताक्षर कर दिया। इसका अभिप्राय यह है कि एक नयी बात जुड़ गयी कि श्रीराम की सभा किसी भूतकाल में न होकर वर्तमान में है और उस सभा में तुलसीदास भी हैं। त्रेतायुग की सभा में तो भरत, लक्ष्मण, हनुमानजी ही दिखायी दे रहे थे, पर इस सभा में तुलसीदास, तुलसीदास का पत्र और उस पत्र पर भगवान् का हस्ताक्षर हो जाता है। तुलसीदासजी 'विनय-पत्रिका' के द्वारा जो सन्देश दे रहे हैं, श्रीराम के साथ अपने को जोड़ रहे हैं, यह केवल इतिहास के साथ सम्भव नहीं है और यही सत्य 'गीतावली' का भी है। 'गीतावली' में घटनाओं का वर्णन है। ऐसा लगता है कि यह तो उन्हीं घटनाओं की पुनरावृत्ति है।
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