धर्म एवं दर्शन >> भगवान श्रीराम सत्य या कल्पना भगवान श्रीराम सत्य या कल्पनाश्रीरामकिंकर जी महाराज
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साधकगण इस प्रश्न का उत्तर हमेशा खोजते रहते हैं
इसका क्या अभिप्राय है? इसका सीधा-सा तात्पर्य यह है कि कैकेयी का सत्य जो है, उसको हम लोगों में से न जाने कितने व्यक्ति जीवन में अनुभव कर सकते हैं और वह सत्य यह है कि कई बार अच्छे से अच्छा व्यक्ति भी जैसे कैकेयी के चरित्र में भी उकृष्ट से उकृष्ट गुण विद्यमान होने पर उसे मन्थरा का संग कह लीजिए, देवताओं की माया का प्रभाव कह लीजिए, इसके पीछे जिन कारणों की बात कही गयी है, उसके रहस्य की चर्चा बड़े विस्तार से की जा सकती है, परन्तु इसका अभिप्राय क्या हुआ? समाज में केवल अच्छे या बुरे ही पात्र हों, अगर हम ऐसा मानकर ही चलेंगे तो फिर 'रामायण' की कोई सार्थकता ही नहीं रह जायेगी।
'रामायण' की सार्थकता यह है कि हम अच्छे भी हैं और बुरे भी हैं। हम ही कभी अच्छे बन जाते हैं और कभी बुरे बन जाते हैं और फिर उसके पश्चात् सांकेतिक भाषा का वर्णन किया गया है। कैकेयी निन्दनीया हो जाती हैं, जब मन्थरा के संग से उनमें स्वार्थपरता आ जाती है। जब श्रीराम को कष्ट पहुँचाने की उनमें वृत्ति आ जाती है, तब वे श्रीराम को दूर भेज देती हैं। कैकेयी वन्दनीया भी हो जाती हैं या जब आगे चलकर वर्णन आता है कि श्रीभरत चित्रकूट जाते हैं, तब सांकेतिक भाषा आप देखेंगे कि तुलसीदासजी की फिर वही पंक्ति और वही दृष्टिकोण कि जिसकी चर्चा अभी मैं आपके सामने कर रहा था और वह यह है कि अयोध्याकाण्ड में श्रीभरतजी के चरित्र का उन्होंने वर्णन किया, परन्तु जहाँ अयोध्याकाण्ड की समाप्ति हुई है, जिस छन्द से समाप्ति हुई है, उस छन्द पर आपने ध्यान दिया! उसकी विशेषता क्या है? तुलसीदासजी यह गिनाने लगे कि अगर भरत का जन्म न हुआ होता तो समाज की कौन-सी हानि होती? और इसका अन्त जिस पंक्ति से उन्होंने किया, वही इसका सबसे बड़ा आनन्ददायक पद है, उन्होंने कहा-
सिय राम प्रेम पियूष पूरन होत जनमु न भरत को।
मुनि मन अगम जम नियम सम दम विषम व्रत आचरत को।।
इतने महान् चरित्र को कौन दिखाता?
दुख दाह दारिद दंभ दूषन सुजस मिस अपहरत को।
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