धर्म एवं दर्शन >> भगवान श्रीराम सत्य या कल्पना भगवान श्रीराम सत्य या कल्पनाश्रीरामकिंकर जी महाराज
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साधकगण इस प्रश्न का उत्तर हमेशा खोजते रहते हैं
दुष्ट मारीच को मारकर राम लौटे। यह बड़ा विचित्र विरोधाभास है। किसी को भक्त लिखें तो भी समझ में आता है, किसी को दुष्ट लिखें तो भी समझ में आता है, लेकिन एक ही प्रसंग में उसको दुष्ट भी कहा और प्रेमी भी कहा, पर यह जीवन की कितनी बड़ी सच्चाई है। अगर हम और आप अपने मन के विषय में विचार करें कि मन दुष्ट है कि भक्त है? इसका उत्तर है कि यह मन कब दुष्ट बन जायेगा और कब भक्त बन जायेगा? इसका कोई ठिकाना नहीं है। कभी इसका आचरण दुष्टों जैसा दिखलायी देगा और कभी भक्तों जैसा।
गोस्वामीजी बड़ी सांकेतिक भाषा में कहते हैं कि मारीच सोने का मृग बनकर श्रीराम के पास जाता है। प्रभु बड़े प्रसन्न हुए कि जीव मेरे सम्मुख आ गया, मैं इसके पापों को नष्ट कर दूँगा, परन्तु मारीच तुरन्त वहाँ से भाग खड़ा हुआ। आश्चर्य हुआ। मारीच पहले आया, फिर क्यों भाग खड़ा हुआ? इसका उत्तर यह है कि यही तो मन का स्वभाव है। कब यह मन्दिर में भगवान् के सामने जाकर खड़ा होगा और कब वहाँ से भाग खड़ा होगा, कब भगवान् की पूजा में लगने की चेष्टा करेगा और कब उनकी ओर से हट करके भागने की चेष्टा करेगा, यह कोई नहीं कह सकता। मन की जो यह दशा है, वही मारीच के व्यक्तित्व में दिखायी देती है, परन्तु गोस्वामीजी ने अन्त में मारीच को भी भगवान् राम से जोड़ दिया। उन्होंने लिखा कि जब मारीच भागने लगा तो श्रीराम कमर में फेंटा कसकर उसके पीछे दौड़े, उसको पकड़ने के लिए। मारीच की भागने की कला यह थी कि मारीच यद्यपि आगे की ओर भाग रहा था पर वह देखता जा रहा था पीछे की ओर-
मम पाछें धर धावत धरें सरासन बान।
फिरि फिरि प्रभुहि बिलोकिहउँ धन्य न मो सम आन।। 3/26
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