ई-पुस्तकें >> भक्तियोग भक्तियोगस्वामी विवेकानन्द
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स्वामीजी के भक्तियोग पर व्याख्यान
भक्ति के लक्षण
निष्कपट भाव से ईश्वर की खोज को भक्तियोग कहते हैं। इस खोज का आरम्भ मध्य और अन्त प्रेम में होता है। ईश्वर के प्रति एक क्षण की भी प्रेमोन्मत्तता हमारे लिए शाश्वत मुक्ति की देनेवाली होती है। भक्तिसूत्र में नारदजी कहते है, ''भगवान के प्रति उत्कट प्रेम ही भक्ति है।'' जब मनुष्य इसे प्राप्त कर लेता है, तो सभी उसके प्रेम-पात्र बन जाते हैं। वह किसी से घृणा नहीं करता; वह सदा के लिए सन्तुष्ट हो जाता है।'' ''इस प्रेम से किसी काम्य वस्तु की प्राप्ति नहीं हो सकती, क्योंकि जब तक सांसारिक वासनाएँ घर किये रहती हैं, तब तक इस प्रेम का उदय ही नहीं होता।'' ''भक्ति कर्म से श्रेष्ठ है और ज्ञान तथा योग से भी उच्च है,'' क्योंकि इन सबका एक न एक लक्ष्य है ही, पर ''भक्ति स्वयं ही साध्य और साधनस्वरूप है।''
सा तु अस्मिन्परमप्रेमरूण। - नारदभक्तिसूत्र- 1.1
सा न कामयमाना, निरोधरूपत्वात्। - नारदभक्तिसूत्र- 2.7
सा तु कर्मज्ञानयगैभ्य: अपि अधिकतरा।- नारदभक्तिसूत्र- 4.25
स्वयं फलरूपता इति ब्रह्मकुमारा। - नारदभक्तिसूत्र- 4.30
हमारे देश के साधु-महापुरुषों के बीच भक्ति ही चर्चा का एक विषय रही है। भक्ति की विशेष रूप से व्याख्या करनेवाले शाण्डिल्य और नारद जैसे महापुरुषों को छोड़ देने पर भी, स्पष्टत: ज्ञानमार्ग के समर्थक, व्याससूत्र के महान् भाष्यकारों ने भी भक्ति के सम्बन्ध में हमें बहुत कुछ दर्शाया है। भले ही उन भाष्यकारों ने, सब सूत्रों की न सही, पर अधिकतर सूत्रों की व्याख्या शुष्क ज्ञान के अर्थ में ही की है, किन्तु यदि हम उन सूत्रों के, और विशेषकर उपासना-काण्ड के सूत्रों के अर्थ पर निरपेक्ष भाव से विचार करें तो देखेंगे कि उनकी इस प्रकार यथेच्छ व्याख्या नहीं हो सकती।
वास्तव में ज्ञान और भक्ति में उतना अन्तर नहीं, जितना लोगों का अनुमान है। पर जैसा हम आगे देखेंगे, ये दोनों हमें एक ही लक्ष्य-स्थल पर ले जाते हैं। यही हाल राजयोग का भी है। उसका अनुष्टान जब मुक्ति- लाभ के लिए किया जाता है - भोले-भाले लोगों की आँखों में धूल झोंकने के उद्देश्य से नहीं (जैसा बहुधा ढोंगी और जादू-मन्तरवाले करते हैं) - तो वह भी हमें उसी लक्ष्य पर पहुँचा देता है।
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