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भक्तियोग

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :146
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9558

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स्वामीजी के भक्तियोग पर व्याख्यान


इष्टनिष्ठा

अब हम इष्टनिष्ठा के सम्बन्ध में विचार करेंगे। जो भक्त होना चाहता है, उसे यह जान लेना चाहिए कि 'जितने मत हैं, उतने ही पथ।' उसे यह अवश्य जान लेना चाहिए कि विभिन्न धर्मों के भिन्न भिन्न सम्प्रदाय उसी प्रभु की महिमा की अभिव्यक्तियाँ हैं। ''लोग तुम्हें कितने नामों से पुकारते हैं। लोगों ने विभिन्न नामों से तुम्हें विभाजित-सा कर दिया है। परन्तु फिर भी प्रत्येक नाम में तुम्हारी पूर्ण शक्ति वर्तमान है। इन सभी नामों से तुम उपासक को प्राप्त हो जाते हो। यदि हृदय में तुम्हारे प्रति ऐकान्तिक अनुराग रहे, तो तुम्हें पुकारने का कोई निर्दिष्ट समय भी नहीं। तुम्हें पाना इतना सहज होते हुए भी मेरे प्रभु, यह मेरा दुर्भाग्य ही है, जो तुम्हारे प्रति मेरा अनुराग नहीं हुआ।''
नाम्नाकारि बहुधा निजसर्वशक्तिस्तत्रार्पिता, नियमित: स्मरणे न काल:। एतादृशी तव कृपा भगवन् ममापि, दुर्दैवमीदृशमिहाजनि नानुराग:।। - श्रीकृष्णचैतन्य 

इतना ही नहीं, भक्त को यह भी ध्यान रखना चाहिए कि अन्य धर्म सम्प्रदायों के तेजस्वी प्रवर्तकों के प्रति उसके मन में घृणा उत्पन्न न हो, वह उनकी निन्दा न करे और न कभी उनकी निन्दा सुने ही। ऐसे लोग वास्तव में बहुत थोड़े होते हैं, जो महान् उदार तथा दूसरों के गुण परखने में समर्थ हों और साथ ही प्रगाढ़ प्रेमसम्पन्न भी हों। बहुधा हम देखते हैं कि उदारभावापन्न सम्प्रदाय अपने धर्मादर्श के प्रति प्रेम की गम्भीरता खो बैठते हैं। उनके लिए धर्म एक प्रकार से सामाजिक और राजनीतिक भावों में रँगी एक समिति के रूप में ही रह जाता है। और दूसरी ओर बड़े ही संकीर्ण सम्प्रदाय के लोग हैं जो अपने अपने इष्ट के प्रति बड़ी भक्ति प्रदर्शित तो करते हैं, पर उन्हें इस भक्ति का प्रत्येक कण अपने से भिन्न मतवालों के प्रति केवल घृणा से प्राप्त हुआ है। कैसा अच्छा होता, यदि भगवान की दया से यह संसार ऐसे लोगों से भरा होता, जो परम उदार और साथ ही गम्भीर प्रेमसम्पन्न हों! पर खेद है, ऐसे लोग बहुत थोड़े होते हैं! फिर भी हम जानते हैं, कि बहुत से लोगों को ऐसे आदर्श में शिक्षित करना सम्भव है, जिसमें प्रेम की गम्भीरता और उदारता का अपूर्व सामंजस्य हो। और ऐसा करने का उपाय है यह इष्टनिष्ठा।

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