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धर्म रहस्य

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :131
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9559

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समस्त जगत् का अखण्डत्व - यही श्रेष्ठतम धर्ममत है मैं अमुक हूँ - व्यक्तिविशेष - यह तो बहुत ही संकीर्ण भाव है, यथार्थ सच्चे 'अहम्' के लिए यह सत्य नहीं है।


हम एक विश्वासघाती की सेवा करें और परित्राण पा जायें - यह कभी हो नहीं सकता। सब का परित्राण है, केवल विश्वासघाती का परित्राण नहीं है - और हमारे ऊपर तो विश्वासघात की छाप लगी है। हम अपनी आत्मा के विरुद्ध विश्वासघाती हैं - हम जब अपने यथार्थ 'अहम् की वाणी का अनुसरण करने को असम्मत होते हैं, तब हम उस जगन्माता की महिमा के विरुद्ध विश्वासघात करते हैं। अतएव चाहे जो कुछ भी हो, हमें अपनी देह और मन को उस परम इच्छामय की इच्छा में मिला देना पड़ेगा।

किसी हिन्दू दार्शनिक ने ठीक कहा है कि यदि मनुष्य - ''तुम्हारी इच्छा पूर्ण हो'' यह बात दो बार उच्चारण करे, तो वह पापाचरण करता है। ''तुम्हारी इच्छा पूर्ण हो।'' बस और क्या प्रयोजन है? इसे दो बार कहने की आवश्यकता ही क्या है? जो अच्छा है, वह तो अच्छा है ही। एक बार जब कह दिया, तुम्हारी इच्छापूर्ण हो, तब तो वह बात लौटायी नहीं जा सकती। ''स्वर्ग की भांति मृत्युलोक में भी तुम्हारी इच्छा पूर्ण हो, कारण, तुम्हारा ही समुदय राजत्व है, तुम्हारी ही सब शक्ति है, तुम्हारी ही सब महिमा है - चिरकाल तक।''

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