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धर्म रहस्य
धर्म रहस्य
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समस्त जगत् का अखण्डत्व - यही श्रेष्ठतम धर्ममत है मैं अमुक हूँ - व्यक्तिविशेष - यह तो बहुत ही संकीर्ण भाव है, यथार्थ सच्चे 'अहम्' के लिए यह सत्य नहीं है।
धर्म-प्रेरणा से मनुष्यों ने संसार में जितनी खून की नदियाँ बहायी हैं, मनुष्य के हृदय की और किसी प्रेरणा ने वैसा नहीं किया। और धर्म-प्रेरणा से मनुष्यों ने जितने चिकित्सालय, धर्मशाला, अन्न-क्षेत्र आदि बनाये, उतने और किसी प्रेरणा से नहीं। मनुष्य-हृदय की और कोई वृत्ति उसे, सारी मानव-जाति की ही नहीं, निकृष्टतम प्राणियों तक की सेवा करने को प्रवृत्त नहीं करती। धर्म-प्रेरणा से मनुष्य जितना कोमल हो जाता है, उतना और किसी प्रवृत्ति से नहीं। अतीत में ऐसा ही हुआ है और बहुत सम्भव है कि भविष्य में भी ऐसा ही हो। तथापि विभिन्न धर्मों और सम्प्रदायों के संघर्ष से निकले हुए इस द्वन्द्व-कोलाहल, विवाद, अविश्वास और ईर्ष्या- द्वेष से समय समय पर इस प्रकार की वज्रगम्भीर वाणी निकली है, जिसने इस सारे कोलाहल को दबाकर संसार में शान्ति और मेल की तीव्र घोषणा कर दी थी। उत्तरी ध्रुव से दक्षिणी ध्रुव तक उसके वज्र-गम्भीर आह्वान को सुनने के लिए मानव जाति बाध्य हुई है। क्या संसार में किसी समय इस शान्ति-समन्वय का राज्य स्थापित होगा?
धर्मराज्य के इस प्रबल संघर्ष के बीच क्या कभी अविच्छिन्न सामंजस्य का होना सम्भव है? वर्तमान शताब्दी के अन्त में इस समन्वय की समस्या को लेकर संसार में एक विवाद चल पड़ा है। इस समस्या का समाधान करने के लिए समाज में कई प्रकार की योजनाएँ सोची जा रही हैं और उन्हें कार्य-रूप में परिणत करने के लिए नाना प्रकार की योजनाएँ सोची जा रही हैं और उन्हें कार्य-रूप में परिणित करने के लिए नाना प्रकार की चेष्टाएँ हो रही हैं। हम सभी लोग जानते हैं कि यह कितना कठिन है। लोग पाते हैं कि जीवन संग्राम की भीषणता को, मानव में जो प्रबल स्नायविक उत्तेजना है उसको, शान्त करना लगभग असम्भव है। जीवन का जो स्थूल एवं बाह्यांश मात्र है, उस बाह्य जगत् में साम्य और शान्ति स्थापित करना यदि इतना कठिन है, तो मनुष्य के अन्तर्जगत् में शान्ति और साम्य स्थापित करना उससे हजार गुना कठिन है।
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