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धर्म रहस्य

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :131
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9559

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समस्त जगत् का अखण्डत्व - यही श्रेष्ठतम धर्ममत है मैं अमुक हूँ - व्यक्तिविशेष - यह तो बहुत ही संकीर्ण भाव है, यथार्थ सच्चे 'अहम्' के लिए यह सत्य नहीं है।


उदाहरणार्थ सूर्य को लीजिये। मान लीजिये, कोई मनुष्य भूतल पर से सूर्योदय देख रहा है; उसको पहले एक गोलाकार वस्तु दिखायी पड़ेगी। अब मान लीजिये, उसने एक कैमरा लेकर सूर्य की ओर यात्रा की और जब तक सूर्य के निकट न पहुँचा, तब तक बार बार सूर्य की प्रतिच्छवि लेने लगा। एक स्थान से लिया हुआ सूर्य का चित्र दूसरे स्थानों से लिये हुए सूर्य के चित्र से भिन्न है - वह जब लौट आयगा, तब उसे मालूम होगा कि मानो वे सब भिन्न भिन्न सूर्यों के चित्र. हैं। परन्तु हम जानते हैं कि वह अपने गन्तव्य पथ के भिन्न भिन्न स्थानों से एक ही सूर्य के अनेक चित्र लेकर लौटा है।

ईश्वर के सम्बन्ध में भी ठीक ऐसा ही होता है। उच्च अथवा निकृष्ट दर्शन से ही हो, सूक्ष्म अथवा स्थूल पौराणिक कथाओं के अनुसार ही हो, या सुसंस्कृत क्रियाकाण्ड अथवा भूतोपासना द्वारा ही हो - प्रत्येक सम्प्रदाय, प्रत्येक व्यक्ति, प्रत्येक धर्म और प्रत्येक जाति, जान या अनजान में अग्रसर होने की चेष्टा करते हुए, ईश्वर की ओर बढ़ रही है। मनुष्य चाहे जितने प्रकार के सत्य की उपलब्धि करे, उसका प्रत्येक सत्य भगवान के दर्शन के सिवा और कुछ नहीं है। मान लीजिये हम जलपात्र लेकर जलाशय से जल भरने आयें - कोई कटोरी लाया, कोई घड़ा लाया, कोई बाल्टी लाया, इत्यादि। अब जब हमने जल भर लिया, तो क्या देखते हैं कि प्रत्येक पात्र के जल ने स्वभावत: अपने अपने पात्र का आकार धारण किया है। परन्तु प्रत्येक पात्र में वही एक जल है - जो सब के पास है। धर्म के सम्बन्ध में भी ऐसा ही कहा जा सकता है - हमारे मन भी ठीक पूर्वोक्त पात्रों के समान हैं।

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