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धर्म रहस्य

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :131
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9559

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समस्त जगत् का अखण्डत्व - यही श्रेष्ठतम धर्ममत है मैं अमुक हूँ - व्यक्तिविशेष - यह तो बहुत ही संकीर्ण भाव है, यथार्थ सच्चे 'अहम्' के लिए यह सत्य नहीं है।


आप सब मेरी बातों को सुन रहे हैं, यदि मेरी बातें आपको अच्छी लगीं, तो आपका मन मेरी बातों के प्रति एकाग्र हो जायगा। फिर यदि आपके कान के पास कोई घण्टा भी बजाये, तो आपको सुनायी नहीं देगा, कारण आपका मन उस समय किसी अन्य विषय में एकाग्र हुआ रहेगा। आप अपने मन को जितना अधिक एकाग्र करने में समर्थ होंगे, उतना ही अधिक आप मेरी बातों को समझ सकेंगे और मैं अपने प्रेम और शक्तिसमूह को जितना ही अधिक एकाग्र कर सकूँगा, उतना ही अधिक अच्छी तरह से मैं आपको अपनी बात समझा सकूँगा। यह एकाग्रता जितनी अधिक होगी, उतना ही अधिक मनुष्य ज्ञानलाभ करेंगे, कारण, यही ज्ञानलाभ का एकमात्र उपाय है - ''नान्य: पन्था विद्यतेऽयनाय''। मोची यदि जरा अधिक मन लगाकर काम करे, तो वह जूतों को अधिक अच्छी तरह से पालिश कर सकेगा। रसोइया एकाग्र होने से भोजन को अच्छी तरह से पका सकेगा। अर्थ का उपार्जन हो, चाहे भगवद्-आराधना हो - जिस काम में जितनी अधिक एकाग्रता होगी, वह कार्य उतने ही अधिक अच्छे प्रकार से सम्पन्न होगा।

द्वार के निकट जाकर बुलाने से या खटखटाने से जैसे द्वार खुल जाता है, उसी भांति केवल इस उपाय से ही प्रकृति के भण्डार का द्वार खुलकर विश्व में प्रकाशधारा प्रवाहित होती है। राजयोग में केवल इसी विषय की आलोचना है। अपनी वर्तमान शारीरिक अवस्था में हम बड़े ही अन्यमनस्क हो रहे हैं। हमारा मन इस समय सैकड़ों ओर दौड़कर अपना शक्ति-क्षय कर रहा है। जब कभी मैं व्यर्थ की सब चिन्ताओं को छोड़कर ज्ञानलाभ के उद्देश्य से मन को स्थिर करने की चेष्टा करता हूँ तब न जाने कहाँ से मस्तिष्क में हजारों बाधाएँ आ जाती हैं। हजारों चिन्ताएँ मन में एक संग आकर उसको चंचल कर देती हैं। किस प्रकार से इन सब का निवारण कर मन को वशीभूत किया जाय, यही राजयोग का एकमात्र आलोच्य विषय है।

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