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धर्म रहस्य

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :131
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9559

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समस्त जगत् का अखण्डत्व - यही श्रेष्ठतम धर्ममत है मैं अमुक हूँ - व्यक्तिविशेष - यह तो बहुत ही संकीर्ण भाव है, यथार्थ सच्चे 'अहम्' के लिए यह सत्य नहीं है।


अब हम देखते हैं कि यद्यपि मानव-जीवन में धर्म ही सर्वापेक्षा अधिक शान्तिदायी है, तथापि धर्म ने ऐसी भयंकरता की सृष्टि भी की है, जैसी कि किसी दूसरे ने नहीं की थी। धर्म ने ही सर्वापेक्षा अधिक शान्ति और प्रेम का विस्तार किया है और साथ ही धर्म ने सर्वापेक्षा भीषण घृणा और विद्वेष की भी सृष्टि की है। धर्म ने ही मनुष्य के हृदय में भ्रातृभाव की प्रतिष्ठा की है, साथ ही धर्म ने मनुष्यों में सर्वापेक्षा कठोर शत्रुता और विद्वेष का भाव भी उद्दीप्त किया है। धर्म ने ही मनुष्यों और पशुओं तक के लिए सब से अधिक दातव्य चिकित्सालयों की स्थापना की है और साथ ही धर्म ने ही पृथ्वी में सब से अधिक रक्त की नदियाँ प्रवाहित की हैं। साथ ही हम यह भी जानते हैं कि सर्वदा एक चिन्तन का अन्त:स्रोत बह रहा है; सारे समय ही, धर्म की तुलनामूलक आलोचना में व्यस्त कितने ही तत्त्वान्वेषी दार्शनिकों और अभ्यासकों के विभिन्न दल, इन सब विवादमान और विरुद्धमतावलम्बी धर्म-सम्प्रदायों में शान्ति स्थापित करने की चेष्टा पहले कर चुके हैं और अब भी चेष्टा कर रहे हैं। किसी किसी देश में ये चेष्टाएँ सफल हुई हैं; परन्तु सारी पृथ्वी की ओर देखने पर मालूम होता है कि समष्टिभाव से ये चेष्टाएँ विफल ही हुई हैं।

अति प्राचीन काल से चले आनेवाले तथा आज भी प्रचलित कुछ धर्मों में यह भाव अच्छी तरह मौजूद है कि सब सम्प्रदाय जीवित रहें; कारण, प्रत्येक सम्प्रदाय में एक उद्देश्य, एक महान् भाव निहित है जो जगत् के कल्याण के लिए आवश्यक है और इस कारण से उसका पोषण करना उचित है। वर्तमान समय में भी यह धारणा आधिपत्य जमा रही है और समय समय पर इसे कार्य में परिणत करने की चेष्टा भी की जाती है। इन सब चेष्टाओं का सब समय आशानुरूप फलदायक होना तो दूर रहा, बड़े खेद की बात तो यह है कि हम और भी अधिक झगड़े और विवाद का सूत्रपात करते जा रहे हैं।

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