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एक नदी दो पाट

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :323
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9560

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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।


प्रश्न करने वाली एक युवती थी। उसके मुख पर एक विशेष सौंदर्य था। इस गम्भीर वातावरण में भी उसके होंठों पर मुस्कान थी। विनोद के शरीर में सिहरन-सी दौड़ गई और वह अपना हैट उसके हाथ से लेते हुए बोला, 'जी...मेरा है...आई एम सॉरी!'

वह उसकी घबराहट का अनुभव करते हुए कमर-पेटी बाँधकर सीट पर बैठ गई। विनोद देर तक उसे कनखियों से देखता रहा। वह एक पत्रिका के पन्ने उलटने लगी।

जहाज़ धरती छोड़ आकाश की ओर जाने लगा। हवाई अड्डे की हर वस्तु धीरे-धीरे छोटी होने लगी। विनोद खिड़की से झाँककर उस शहर को देखने लगा जो धीरे-धीरे उसकी आँखों से ओझल हो रहा था।

ज्यों-ज्यों जहाज़ बर्मा से भारत की ओर जा रहा था, अतीत के चित्र उसकी आँखों के सामने नाचने लगे और बीते दिनों की याद नवीन हो गई। पास बैठी सौंदर्य की देवी की साधारण-सी झलक ने उसकी सोती हुई आकांक्षाओं में हलचल मचा दी थी।

एक लम्बे समय के पश्चात् आज वह फिर उसी वातावरण में लौट रहा था जहाँ से भागकर वह सेना में भरती हो गया था। उसे वहाँ के रहने वालों से, वहाँ की हर वस्तु से घृणा थी। उसे वहाँ के कण-कण में छल दिखाई देता था। उसे न भूलने वाली उस भयानक रात की याद-जब उसे जीवन का सबसे बड़ा धोखा हुआ था-एक नागिन की भाँति डसने लगी।

वह रात थी विनोद के ब्याह की रात। उसे आज भी वह रात कल के समान याद थी। कैसे वह मधुर सपनों में खोया उस मदमाती रात के पहले पहर में अपने मित्रों के साथ बैठा था!

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