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ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट

एक नदी दो पाट

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :323
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9560

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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।


इतने में कामिनी चाय का पानी लेकर लौटी और विनोद के लिए चाय बनाने लगी। वह न चाहता था कि वह उसकी सेवा का कृतज्ञ बने, इसलिए बोला, 'नौकर जो है, उसे कहो चाय बना दे।'

'उसे और काम भी तो करने हैं, यह छोटे-छोटे काम मैं स्वयं कर लूँगी।' चाय का प्याला सामने रखते हुए वह बोली।

विनोद ने चाय का प्याला उठा लिया और वह सोफे का सहारा लेकर पास ही कालीन पर बैठ गई। विनोद चाहता था कि उसे भी चाय पीने के लिए कहे; परन्तु उसने कुछ सोचकर अपने मन की दुर्बलता और सहानुभूति को पहले ही दिन उसपर स्पष्ट करना उचित न समझा। जब वह उसकी आज्ञा बिना यहाँ तक चली आई है तो उसे खाने-पीने में क्या अड़चन है? शायद वह चाहती है कि स्वयं झुककर उसे पीने के लिए आग्रह करे और वह प्रतिदिन उसके पास बैठकर खाया-पीया करे। रोज़ का साथ उठना-बैठना उसके हृदय को पिघला देगा और वह उसे अपना लेगा।

वह ऐसी बेतुकी बातें सोचता चाय पीता रहा और उसने एक बार भी कामिनी को चाय के लिए नहीं कहा। वह दिखाना चाहता था कि उसे उसकी तनिक भी चिन्ता नहीं। और इसमें झूठ भी क्या था! उसके मन में कामिनी के लिए रत्ती-भर प्यार न था; बल्कि उससे घृणा थी। उसे उसका अपने पास बैठना भी सहन न था। परन्तु वह इस भावना को व्यक्त करना नहीं चाहता था। उसका विचार था कि वह समझा-बुझाकर उसे चन्द दिनों में लाहौर भिजवा देगा।

चाय पीकर, कपड़े बदल वह घूमने चला गया। कामिनी से उसने कोई बात करनी उचित न समझी। नौकर ने कामिनी को चाय पी लेने को कहा तो उसने इन्कार कर दिया। वह दृढ़ निश्चय कर चुकी थी कि-जब तक वे स्वयं न पूछेंगे, वह उस घर का एक दाना तक न खाएगी।

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