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एक नदी दो पाट

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :323
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9560

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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।


दोनों के शरीर जब एक-दूसरे की बाँहों में जकड़ गए तो कामिनी के मस्तिष्क-पट को किसी चोट ने खोल दिया। उसकी पलकें खुलीं और उसने स्वयं को समझाने का व्यर्थ प्रयत्न किया। वह अभी तक बेहोशी में पूछ रही थी-'मैं कहाँ हूँ?'

'कामिनी।...मैं विनोद हूँ। देखो तो...तुम्हारे बिल्कुल पास!' विनोद का नाम सुनते ही कामिनी होश में आ गई। वह घबराहट से चौंक उठी और अपने-आपको किसी की गर्म बाँहों की कठोर जकड़ में पाकर उठ बैठी।

विनोद की बाँहें ढीली पड़ गईं और वह कामिनी के घबराए हुए मुख को देखने लगा। कामिनी को विश्वास न आ रहा था कि विनोद उसके इतने निकट है। जैसे ही विनोद के होंठों पर मुस्कराहट की हल्की-सी रेखा आई, कामिनी की आँखों से अश्रुधारा यों फूट निकली मानो किसी ने भरपूर पात्र को ठोकर लगा दी हो और वह छलक पड़ा हो। उसने झुककर अपना मुख विनोद के हाथों में छिपा लिया।

विनोद ने खींचकर उसे अपने सीने से चिपका लिया। दूर बादलों में एक बिजली चमकी और फिर घाटी गरज से गूंज उठी। छम-छम मेह बरसने लगा। वातावरण की मैल धुल गई और निर्मल जल की धाराएँ बहने लगीं।

कामिनी को अनुभव हुआ मानो किसी ने एकाएक उसे नरक से निकालकर स्वर्ग के द्वार पर ला खडा किया हो। कोई उसे भीतर आने को पुकार रहा हो; परन्तु उसके पाँवों में इतना साहस न हो सका कि वह आगे बढ़ सके। उसने अपनी आँखें बन्द कर ली थीं।

अगले दिन रविवार था, इसलिए विनोद कुछ देर से जागा। जैसे ही उसकी आँख खुली, उसने सामने कामिनी को खड़े देखा जो सवेरे की चाय लिए उसके जागने की प्रतीक्षा कर रही थी। दोनों की आँखें मिलीं और कामिनी ने संकोच से सिर झुका लिया। विनोद होंठों पर मुस्कराहट लाते हुए बोला-'ढीठ कहीं की!' उसने मुंह मोड़ लिया और चाय का प्याला उसके हाथ में पकड़ाकर भागना चाहती थी कि विनोद ने पकड़कर उसे अपनी ओर खींच लिया।

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