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एक नदी दो पाट

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :323
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9560

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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।


जब कामिनी को इस बात का ज्ञान हुआ तो वह सिर पटककर रह गई। भारतीय स्त्रियाँ चाहे कितनी ही शिक्षित क्यों न हों, ऐसी बातों में उनके विचार बहुत रूढ़ि और पुराने होते हैं। वह जानकर रोने लगी और विनोद से आग्रह करने लगी कि वह इस प्रस्ताव को बिल्कुल न माने।

विनोद नये विचारों का व्यक्ति था। बड़े-से-बड़ा भय भी उसके लिए साधारण था। उसे विश्वास था कि अपनी वर्तमान सिविल नौकरी में वह अधिक-से-अधिक एम. ई. एस से एम. डी. ओ. की पदवी तक पहुँच जाएगा। उसे अपनी योग्यता दिखाने का केवल यही अवसर था। और फिर यहाँ कौन-सी आकर्षण-शक्ति थी जो उसके बर्मा जाने में बाधा बन सकती?

स्वीकृति देकर उसे जाना ही पड़ा। बर्मा की यात्रा आरम्भ करने से पूर्व वह कामिनी को लाहौर अपने घर छोड़ने गया। वह जानता था कि उसकी अनुपस्थिति में उसका मायके में रहना उचित नहीं।

कलकत्ता जाने से पूर्व स्टेशन पर उसके मित्र, सम्बन्धी और अफसर उसे विदाई देने के लिए आए। कामिनी की सहेली कान्ती भी मिलने वालों में से थी। जब वह उसके समीप आई तो विनोद ने प्यार से उसके कंधों को थपथपाते हुए अपनी भूल की क्षमा मांगी।

'पगली कहीं की! संसार में कितने ही ऐसे अपराध होते हैं जिन्हें करने में पुण्य होता है।'

इसपर दोनों खिलखिलाकर हँस पड़े। कामिनी ने भी उनका दिया।

मानव भावनाओं का दास है। उसकी लम्बी यात्रा और युद्ध की आग ने सबके मन का मैल धो दिया था। उसे छोड़ने आने वाले अपस में बातें करते रहे; परन्तु कामिनी मौन खड़ी उसे देखती रही मानो उसके होंठ सी दिए गए हों।

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