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एक नदी दो पाट

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :323
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9560

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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।


विनोद ने विस्फारित दृष्टि से अखबार को देखा। जिस जहाज़ में वे जा रहे थे वह आसाम के हवाई अड्डे से निकलते ही एक दुर्घटना का शिकार हो गया था। इंजन में विकार उत्पन्न होने से उसे आग लग गई थी और वह आसाम की घनी घाटियों में राख का ढेर बन गया। जो लाशें मिलीं, वे आग से इतनी झुलस गई थीं कि उन्हें पहचानना कठिन था। लोगों को सूचना के लिए सरकार ने यात्रियों के नाम, पते और उनकी तस्वीरें अखबारों में छपवा दीं। उन दोनों की तस्वीरें भी इन्हीं में थीं।

'विधि का विधान भी क्या है!' लम्बा निःश्वास खींचते हुए माधवी बोली-हम दोनों को मृत्यु के पंजे से बचना था...जहाज़ मिस कर गए!'

'आखिर भाग्य भी कुछ है!'

'हूँ!'

'मुझे तो यों लगता है मानो हम दोनों का कोई बहुत पुराना सम्बन्ध...जन्म-जन्म का...हमारी यह अचानक भेंट...जहाज़ का बिगड़ जाना...आसाम की घाटियों की सैर और फिर यह यात्रा...तुम्हें यह सब क्या लगता है?'

'बहुत ही भला...परन्तु भाग्य का इसमें क्या?'

'तो...?'

'यह तो मन की दुनिया के चमत्कार हैं जिसने तुम्हें देखा और समझने का प्रयत्न करने लगा...और मुझे यह अनजाने सहयात्री के साथ बढ़ने पर विवश किया।'

'ओह!' तुम भी इस मन की विवशता को मानती हो?'

'क्यों नहीं! मैं तो समझती हूँ कि किसी को समझने के लिए केवल मस्तिष्क ही नहीं; बल्कि मन का निर्णय भी आवश्यक है।'

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