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एक नदी दो पाट

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :323
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9560

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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।


'कोई भी नहीं क्या? माँ, बाप, भाई?'

'नहीं...माँ-बाप तो होश सँभालने से पहले चल बसे...एक भाई है जिससे सम्पत्ति का झगड़ा चल रहा है...मेरे जीवित बच रहने की सूचना पाकर उसका मन बैठ जाएगा। मैं स्वयं ही उससे जा मिलूँगा।'

'तब तो आप आज़ाद हैं।'

'आज़ाद...दुनिया से आज़ाद, मन और मस्तिष्क की दुनिया से आज़ाद...और फिर इस घटना ने तो मुझे ऐसे बन्धनों से भी आज़ाद कर दिया है जिनसे निकलना बड़ा कठिन था।'

'कैसे बन्धन?'

'बन्धन...मेरा आशय यह संसार के बन्धन...यह फौजी जीवन...यह युद्ध का कोहराम।

'ओह...! तब तो आप मेरी प्रार्थना भी न मोड़ेंगे!'

'क्या?' विनोद उसके इस प्रश्न से चौंक गया और यों उसकी ओर देखने लगा मानो वह उससे अनहोनी बात कहने वाली हो।

'आप मुझे पटना तक छोड़ आएँ।'

'ओह...परन्तु...'

'अब मैं कोई बात न सुनूँगी। अब तो आप आज़ाद हैं।' माधवी ने विनोद की बात काटकर उसे चुप करा दिया।

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