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एक नदी दो पाट

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :323
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9560

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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।


'यों कहिए भगवान् ने बचाने का एक साधन सोचा था, वरना मैं आज अपने भाई से क्या कहता! तुम्हारा तार मिलते ही मैंने रंगून उन्हें सूचना दे दी है।'

'तार तो हमने भी भिजवा दिया था।' विनोद ने कहा।

'अच्छा किया...चलो, अब चलें।' बरमन साहब ने नौकर को सामान लाने के लिए कहा और दोनों को लेकर स्टेशन से बाहर निकल आए।

विनोद जब जमींदार बरमन की कोठी पर पहुँचा तो वह वहाँ के ठाठ-बाट देखकर विस्मित रह गया। उसे यों लग रहा था मानो वह किसी महाराजा का अतिथि बनकर आया हो। हर कमरा बहुमूल्य फर्नीचर से सजा हुआ था। छतों पर लटके हुए भारी झाड़फानूस, फर्श पर बढ़िया मखमली कालीन, नौकरों की भर- मार, आराम का हर सामान वहाँ प्राप्त था।

'माधवी!' विनोद ने माधवी को सम्बोधित करते हुए कहा, हमारे जहाज़ के साथी न जाने मरने के पश्चात् नरक में गए या स्वर्ग में; परन्तु मैं तो जीवन में ही स्वर्ग में पहुँच गया हूं। ऐसा लग रहा है मानो कोई स्वप्न देख रहा हूँ।'

'जीवन की मुन्दर घड़ियों को स्वप्न जानकर ही बिता दिया जाए तो पछताना पड़ेगा। आइए, वास्तविकता के रंग देखिए।'

'क्या?'

'शीघ्र नहा-धोकर खाना खाएँ। पेट में चूहे कूद रहे हैं।'

विनोद मुस्कराया और नौकर के साथ अपने कमरे में चला आया।

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